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________________ 188 : प्राकृत व्याकरण अर्थः- जब ‘युष्मद्' शब्द का पूर्ण रूप से 'तू-तुम' अर्थ व्यक्त होता हो; तभी 'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' वर्ण का 'त' हो जाता है। जैसे:- युष्माद्दश: - तुम्हारिसो ॥ युष्मदीयः = तुम्हकेरो || प्रश्नः- ‘अर्थ परः' अर्थात् पूर्ण रूप से 'तू-तुम' अर्थ व्यक्त होता हो; तभी 'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' वर्ण का 'त' होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि तू-तुम अर्थ 'युष्मद्' शब्द का नहीं होता हो, एवं कोई अन्य अर्थ ' युष्मद्' शब्द का प्रकट होता हो तो उस ‘'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' का 'त' नहीं होकर 'य' का 'ज' सूत्र संख्या १ - २४५ के अनुसार होता है। जैसे:युष्मदस्मत्प्रकरणम्- (अमुक-तमुक से संबंधित = अनिश्चित व्यक्ति से संबंधित =) जुम्ह अम्ह-पयरणं । इस उदाहरण में स्थित 'युष्मद्' सर्वनाम 'तू-तुम' अर्थ को प्रकट नहीं करता है; अतः इसमें स्थित 'य' वर्ण का 'त' नहीं होकर 'ज' हुआ है। 'तुम्हारिसा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४२ में की गई है। 'युष्मदीयः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुम्हकेरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४६ से 'य्' का 'त्'; २-७४ से 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; १ - ११ से 'युष्मद्' शब्द में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'त' का लोप; २-१४७ से ‘सम्बन्ध वाला' अर्थद्योतक संस्कृत प्रत्यय 'ईय' के स्थान पर प्राकृत में 'केर' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तुम्हकेरो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'युष्मद्- अस्मद्' संस्कृत सर्वनाम मूल रूप है। इसका (अमुक-तमुक अर्थ में) प्राकृत रूप 'जुम्ह - दम्ह' होता है। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य्' का 'ज्'; २-७४ से 'ष्म' और 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; १-५ से 'युष्मद्' में स्थित 'द्' की परवर्ती 'अ' के साथ संधि; और १ - ११ से 'अस्मद्' में स्थित अन्त्य 'द्' का लोप होकर 'जुम्ह - दम्ह' रूप की सिद्धि हो जाती है। 'प्रकरणम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पयरणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से प्रथम 'र्' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप १ - १८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पयरणं रूप सिद्ध हो जाता है। ।।१ - २४६ ।। यष्ट्यां लः ।। १-२४७ ।। यष्टयां यस्य लो भवति ॥ लट्ठी । वेणु-लट्ठी । उच्छु-लट्ठी । महु-लट्ठी ॥ अर्थ :'यष्टि' शब्द में स्थित 'य' का 'ल' होता है। जैसे:- यष्टिः - लट्ठी | वेणु - यष्टि: - वेणु - लट्ठी ।। इक्षु-यष्टिः-उच्छ-लट्ठी ॥ मधु - यष्टिः - महु - लट्ठी ॥ 'यष्टिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४७ से 'य' का 'ल'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ' ; २- ९० से प्राप्त पूर्व 'व्' का 'ट्'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' एवं विसर्ग को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'लट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वेणु-यष्टिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेणु-लट्ठी' होता है। इस रूप की सिद्धि ऊपर सिद्ध किये हुए 'लट्ठी' रूप के समान ही जानना ।। 'इक्षु-यष्टि':- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उच्छु- लट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ९५ से 'इ' को 'उ' की प्राप्ति; २ - ३ से 'क्ष' को 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' ; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च्' की प्राप्ति और शेष सिद्धि उपरोक्त लट्टी के समान ही लेकर 'उच्छु- लट्ठी' रूप की सिद्धि हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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