________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 187 'यमः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जमा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जमो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'याति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन के प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जाइरूप सिद्ध हो जाता है।
'अवयवः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवयवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अवयवो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विनयः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विणओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विणआ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'संयमः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संजमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संजमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'संयोग' : संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संजोगो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संजोगो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अपयशस्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवजसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-११ से अन्त्य हलन्त 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अवजसो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'प्रयोगः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पओओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'य' और 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पओओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
"यथाख्यातम संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप 'अहक्खायं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से- (वृत्ति से)- 'य' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १-८४ से प्राप्त 'हा' में स्थित 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ख' को 'क्' की प्राप्ति; १-१७७ से'' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अहक्खाय' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'यथाजातम' संस्कृत विशेषण है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'अहाजायं' रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ की वृत्ति से 'य' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-८७ से 'थ' का 'ह'; १–१७७ 'त' का लोप; १-१८० लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अहाजायं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। १-२४६ ।।
__ युष्मद्यर्थपरे तः ।। १-२४६ ।। युष्मच्छब्देर्थपरे यस्य तो भवति ।। तुम्हारिसो । तुम्हकेरो ।। अर्थ पर इति किम्। जुम्ह-दम्ह-पयरण।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org