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________________ 186 : प्राकृत व्याकरण २-६१ से 'न्म' का 'म'; २-८९ से प्राप्त 'म' का द्वित्व 'म्म'; १-१८७ से'थ का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वम्महो' रूप सिद्ध हो जाता है।। १-२४२।। वाभिमन्यौ ।। १-२४३ ।। अभिमन्यु शब्दे मो वो वा भवति ।। अहिवन्नू अहिमन्नू ।। अर्थ :- अभिमन्यु शब्द में स्थित 'म' का वैकल्पिक रूप से 'व' होता है। अभिमन्युः अहिवन्नू अथवा अहिमन्नू। 'अभिमन्युः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अहिवन्नू' और 'अहिमन्नू' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ह' ; १-२४३ से 'म' का विकल्प से 'व'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'न्' का द्वित्व 'न्न' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर क्रम से 'अहिवन्न' और 'अहिमन्नू' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। ।। १-२४३ ।। भ्रमरे सो वा ।। १-२४४ ।। भ्रमरे मस्य सो वा भवति ॥ भसलो भमरो ।। अर्थ :- भ्रमर शब्द में स्थित 'म' का विकल्प से 'स' होता है। जैसे :- भ्रमरः भसला अथवा भमरो।। 'भ्रमरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भसलो' और 'भमरा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-२४४ से विकल्प से 'म' का 'स'; १-२५४ से द्वितीय 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भसला' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भमरो' भी सिद्ध हो जाता है।। १-२४४।। आदेयों जः ।। १-२४५ ॥ पदादेर्यस्य जो भवति ।। जसो । जमो । जाइ ।। आदेरिति किम् । अवयवो ॥ विणओ ।। बहुलाधिकारात् सोपसर्गस्यानादेरपि । संजमो संजोगो । अवजसो ॥ क्वचिन्न भवति। पओओ ।। आर्षे लोपोपि । यथाख्यातम् । अहक्खाय।। यथाजातम् । अहाजायं ।। __ अर्थ :-यदि किसी पद अथवा शब्द के आदि में 'य' रहा हुआ हो; तो उस 'य' का प्राकृत रूपान्तर में 'ज' हो जाता है। जैसे:- यशः जसो।। यमः-जमा।। याति जाइ।। प्रश्नः- 'य' वर्ण पद के आदि में रहा हुआ हो; तभी 'य' का 'ज' होता है; ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर:- यदि 'य' वर्ण पद के आदि में नहीं होकर पद के मध्य में अथवा अन्त में रहा हुआ हो; अर्थात् 'य' वर्ण पद में अनादि रूप से स्थित हो तो उस 'य' का 'ज' नहीं होता है। जैसे:- अवयवः अवयवा ।। विनयः-विणआ ।। इन उदाहरणों में 'य' अनादि रूप है; अतः इनमें 'य' का 'ज' नहीं हुआ है। यों अन्य पदों के सम्बन्ध में भी जान लेना।। ___ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से यदि कोई पद उपसर्ग सहित है; तो उस उपसर्ग सहित पद में अनादि रूप से रहे हुए 'य' का भी 'ज' हो जाया करता है। जैसे:- संयमः-संजमो ।। संयोगः-संजोगो।। अपयशः अवजसो।। इन उदाहरणों में अनादि रूप से स्थित 'य' का भी 'ज' हो गया है। कभी-कभी ऐसा पद भी पाया जाता है जो कि उपसर्ग सहित है और जिसमें 'य' वर्ण अनादि रूप से स्थित है; फिर भी उस 'य' का 'ज' नहीं होता है। जैसेः-प्रयोगः-पओओ ।। आर्ष-प्राकृत पदों में आदि में स्थित 'य' वर्ण का लोप होता हुआ भी पाया जाता है। जैसे:- यथाख्यातम् अहक्खायं ।। यथाजातम् अहाजाय।। इत्यादि।। जसो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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