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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 185
बिसिन्यां भः।।१-२३८।। बिसिन्यां बस्य भो भवति।। भिसिणी स्त्रीलिंगनिर्देशादिह न भवति। बिसतन्तु-पेलवाणं।।
अर्थ :- बिसिनी शब्द में रहे हुए 'ब' वर्ण का 'भ' होता है। जैसे:- विसिनी भिसिणी।। बिसिनी शब्द जहां स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होगा, वहीं पर बिसिनी में स्थित 'ब' का 'भ' होगा। किन्तु जहां पर 'बिस' रूप निर्धारित होकर नपुंसकलिंग में प्रयुक्त होगा; वहां पर 'बिस' में स्थित 'ब' का 'भ' नहीं हुआ है। यों लिंग-भेद से वर्ण भेद जान लेना।
बिसिनी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भिसिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३८ से 'ब' का 'भ' और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर भिसिणी रूप सिद्ध हो जाता है।
बिस-तन्तु पेलवानाम् संस्कृत षष्ठयन्त वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूपान्तर बिस-तन्तु पेलवाणं होता है। इसमें केवल विभक्ति प्रत्यय का ही अन्तर है। तदनसार सत्र-संख्या ३-६ से संस्कत षष्ठी बहवचन के प्रत्यय 'आम' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'व' में रहे हुए 'अ' को 'आ' की प्राप्ति; और १-२७ से 'ण' प्रत्यय पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर बिस-तन्तु पेलवाणं रूप की सिद्धि हो जाती है।। १-२३८।।
कबन्धे म-यौ।। १-२३९।। कबन्धे वस्य मयो भवतः।। कमन्धो।। कयन्धो।।
अर्थ : कबन्ध शब्द में स्थित 'ब' का कभी 'म' होता है और कभी 'य' होता है। तदनुसार कबन्ध के दो रूप होते हैं। जो इस प्रकार हैं:- कमन्धो और कयन्धो।।
कबन्धः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कमन्धो और कयन्धो होते हैं; इनमें सूत्र-संख्या १-२३९ से प्रथम रूप में 'ब' का 'म' और द्वितीय रूप में इसी सूत्रानुसार 'ब' का 'य' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से कमन्धो और कयन्धो रूपों की सिद्धि हो जाती है।।।१-२३९।।
कैटभे भो वः ॥ १-२४० ।। कैटभे भस्य वो भवति ।। केढवो ।। अर्थ :- 'कैटभ' शब्द में स्थित 'भ' का 'व' होता है। जैसे :- कैटभः केढवो।। 'केढवो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४८ में की गई है। ।। १-२४० ।।
विषमे मो ढो वा ।। १-२४१ ।। विषमे मस्य ढो वा भवति ।। विसढो । विसमो ॥
अर्थ :- विषम शब्द में स्थित 'म' का वैकल्पिक रूप से 'ढ' होता है। जैसे :- विषमः-विसढो अथवा विसमा।। ___ 'विषमः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'विसढो' और 'विसमो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' का 'स'; १-२४१ से 'म' का वैकल्पिक रूप से 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'विसढो' और 'विसमो' रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।। १-२४१ ।।
मन्मथे वः ॥ १-२४२ ।। मन्मथे मस्य वो भवति ।। वम्महो ।। अर्थ :- मन्मथ शब्द में स्थित आदि 'म' का 'व' होता है। जैसे:- मन्मथः-वम्महो।। 'मन्मथः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वम्महो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४२ से आदि ‘म' का 'व';
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