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342 : प्राकृत व्याकरण
किसी भी एक का प्रयोग करने पर प्राकृत-साहित्य में 'के समान' अथवा 'की तरह' का अर्थ अभिव्यक्त होता है। क्रम से उदाहरण इस प्रकार है:- कुमुदम् इव = कुमुअं मिव-चन्द्र से विकसित होने वाले कमल समान; चन्दनम् इव चन्दणं पिव-चन्दन के समान; हंसः इव-हंसो विव- हंस के समान; सागरः इव - साअरोव्व - सागर के समान; क्षीरोदः इव खीरोओ व = क्षीर समुद्र के समान; शेषस्य निर्मोक: इव-सेसस निम्मोओ व शेषनाग की कंचुली के समान; कमलम् इव= कमलं विअ = कमल के समान और पक्षान्तर में 'नीलोत्पल-माला इव-नीलुप्पल-माला इव अर्थात् नीलोत्पल-कमलों की माला के समान उदाहरण में संस्कृत के समान ही 'इव' अव्यय का प्रयोग उपलब्ध है।
'कुमुदम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुमुअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कुमुअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इव' संस्कृत सदृशता वाचक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मिव' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १८२ से 'इव' के स्थान पर 'मिव' आदेश वैकल्पिक रूप से होकर 'मिव' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चन्दनम् ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चन्दणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त कुमुअं के समान ही होकर 'चन्दणं" रूप सिद्ध हो जाता है।
स. इव='पिव' अव्यय की साधनिका उपरोक्त 'मिव' अव्यय के समान ही होकर 'पिव' अव्यय सिद्ध हो जाता है। 'हंसः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हंसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हंसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
सः इव='विव' अव्यय की साधनिका उपरोक्त 'मिव' अव्यय के समान ही होकर 'विव' अव्यय सिद्ध हो जाता है। 'सागरः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'साअरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ग्' का लोप ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'साअरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
सः इव='व्व' अव्यय की साधनिका उपरोक्त 'मिव' अव्यय के समान ही होकर 'व्व' अव्यय सिद्ध हो जाता है।
‘क्षीरोदः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खीरोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खीरोओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शेषस्य' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सेसस्य' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से दोनों प्रकार के 'श्' और 'ष्' के स्थान पर क्रम से 'स्' की प्राप्ति; ३ - १० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति होकर 'सेसस्य' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इव:' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत एक रूप 'व' भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १८२ से 'इव' के स्थान पर 'व' का आदेश होकर 'व' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निर्मोक:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निम्मोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म्' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निम्मोओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कमलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कमल' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कमल' रूप सिद्ध हो जाता है।
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