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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 343 'इव' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विअ भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८२ से 'इव' के स्थान पर विअ आदेश होकर 'विअ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'नीलोत्पल माला' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नीलुप्पल-माला' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर रूप 'ओ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७७ से 'त्' का लोप और २-८९ से लोप हुए त् के पश्चात् शेष रहे हए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति होकर 'नीलप्पल-माला' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'इव' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इव' भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८२ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'इव' का 'इव' ही यथा रूप रहकर 'इव' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८२।। __ जेण तेण लक्षणे ।। २-१८३।। जेण तेण इत्येतो लक्षणे प्रयोक्तव्यो।। भमर-रूअंजेण कमल-वणं। भमर रूअं तेण कमल-वणं। अर्थः- किसी एक वस्तु को देखकर अथवा जानकर उससे संबंधित अन्य वस्तु की कल्पना करना अर्थात् 'ज्ञात' द्वारा 'ज्ञेय' की कल्पना करने के अर्थ में प्राकृत साहित्य में 'जेण' और 'तेण' अव्ययों का प्रयोग किया जाता है। जैसेः भ्रमर-रूतं येन (लक्ष्यीकृत्य) कमल वनं और भ्रमर-रूतं तेन (लक्ष्यी कृत्य) कमल-वनम्; अर्थात् भ्रमरों का गुजारव (हे) तो (निश्चय ही यहां पर) कमल-वन (है)। _ 'भम्रर-रुतं' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भमर-रुअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'भमर-रु रूप सिद्ध हो जाता है। __'येन' (लक्ष्यीकृत्य इति अर्थे) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'जेण' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कमल वनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कमल-वणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कमल-वणं रूप सिद्ध हो जाता है। "तेन' (लक्ष्यीकृत्य इति अर्थेसंस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'तेण' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८३।। णइ चेअ चिअ च्च अवधारणे ॥ २-१८४॥ एतेऽवधारणे प्रयोक्तव्याः। गईए णइ। जं चेअ मउलणं लोअणाणं। अणुबद्धं तं चिअ कामिणीण।। सेवादित्वात् द्वित्वमपि।। ते च्चिअ धन्ना। ते च्चेअ सुपुरिसा। च्च।। स च्च य रूवेण। स च्च सीलेण।। अर्थ:- जब निश्चयार्थ-(ऐसा ही है)-प्रकट करना होता है; तब प्राकृत साहित्य में णइ' 'चेअ' 'चिअ'च्च' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। उपरोक्त चार अव्ययों में से किसी भी एक अव्यय का प्रयोग करने से 'अवधारण-अर्थ' अर्थात् निश्चयात्मक अर्थ प्रकट होता है। इन अव्ययों में ऐसा ही है ऐसा अर्थ प्रति-फलित होता है। उदाहरण इस प्रकार है:गत्या एव-गईए णइ अर्थात् गति से हो; यत् एव मुकुलनं लोचन नाम्-जंचेअ मउलणं लोअणाणं अर्थात् आँखों की जो अर्घ-खिलावट ही; अनुबद्धं तत् एव कामिनीभ्यः=अणुवद्धं तं चिअ कामिणीणं अर्थात् स्त्रियों के लिये ही यह अनुबद्ध है इत्यादि। सूत्र संख्या २-९९ वाले 'सेवादित्वात्' सूत्र से 'चेअ' और 'चिअ' अव्ययों में स्थित 'च' को द्वित्व'च्च' की प्राप्ति भी हो जाया करती है। जैसे:-ते एव धन्याः ते च्चिअ धन्ना अर्थात् वे धन्य ही है; ते एव सुपुरुषाः ते च्चेअ सुपुरिसा अर्थात् वे सत्पुरुष ही है। 'च्च' निश्चय वाचक अव्यय के उदाहरण इस प्रकार है:- स एव च रूपेण स च्च य रूवेण अर्थात् रूप से ही वह (आदरणीय आदि है); और स एव शीलेन सच्चसीलेण अर्थात् शील (धर्म) से ही वह (पूज्य आदि) है; इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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