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344 प्राकृत व्याकरण
'गत्या' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गईए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से (मूल रूप में स्थित-गति+आ) 'त्' का लोप और ३ - २९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति एवं ३ - २९ से ही प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्व में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'गईए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एव' संस्कृत अवधारणार्थक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १८४ से 'एव' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति होकर 'इ' रूप सिद्ध हो जाता है।
सर्वनामरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ३४ में की गई है।
अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
'मुकुलनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मउलणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १०७ से प्रथम 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'क' का लोप; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'मउलणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लोचनानाम्' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लोअणाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप; १ - २२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - ६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय 'नाम्' प्रत्यय स्थान पर ३ - १२ से प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; 'ण' के पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'लोअणाणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अनुबद्धम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अणुबद्ध' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'अणुबद्ध' रूप सिद्ध हो जाता है।
तं सर्वनामरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
चिअ अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९९ में की गई है।
'कामिनीभ्यः' संस्कृत चतुर्थ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कामिणीणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति; ३ - १३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का विधान; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'कामिणीण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ते' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ते' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से मूल रूप 'तत्' के द्वितीय 'त्' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'डे' आदेश; 'डे' से 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'त' में रहे हुए 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप; और १-५ से शेष हलन्त 'त्' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संधि होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता है।
च्चिअ अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
'धन्याः ' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धन्ना' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'न' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'धन्ना' रूप सिद्ध हो जाता है।
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