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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 345
'ते' सर्वनाम रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'च्चेअ' प्रत्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
सुपुरुषाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुपुरिसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१११ से 'रू' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्रप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'स' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सुपुरिसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
"एव' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप'च्च होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८४ से 'एव' के स्थान पर 'च्च' आदेश की प्राप्ति होकर 'च्च' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'स' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-८६ से मूल सर्वनाम 'तत्' के स्थान पर 'सो' आदेश और २-३ से वैकल्पिक रूप से 'ओ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'स' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'च' संस्कृत संबंध-वाचक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'य' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' का लोप
और १-१८० से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति होकर 'य' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'रूपेण' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रूवेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में अथवा पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'व' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'रूवेण' रूप सिद्ध हो जाता है।
"स' और 'च्च' रूपों की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
'शीलेण' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सीलेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में अथवा पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'ल' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'सीलेण' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८४।।
बले निर्धारण-निश्चययोः ।। २-१८५।। बले इति निर्धारणे निश्चये च प्रयोक्तव्यम्।। निर्धारणे। बले पुरिसो धणंजओ खत्तिआण।। निश्चये। बले सीहो। सिंह एवायम्॥
अर्थः- दृढ़तापूर्वक कथन करने में और निश्चय-अर्थ बतलाने में प्राकृत साहित्य में 'बले' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-'बले' पुरुषः धनंजयः क्षत्रियाणां-बले पुरिसो धणं-जओ खत्तिआणं अर्थात् क्षत्रियों में वास्तविक पुरुष धनंजय ही है। सिंह एवायम्=बले सीहो अर्थात् यह सिंह ही है। कोई-कोई 'निर्धारण' शब्द का अर्थ ऐसा भी करते हैं कि 'समूह' में से एक भाग को पृथक् रूप से प्रदर्शित करना।
'बले' अव्यय रुढ़-अर्थक होने से रुढ़-रूपक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है। पुरिसा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४२ में की गई है। धणंजआ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'क्षत्रियाणाम्' (अथवा क्षत्रियेषु) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खत्तिआणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष बचे हुए 'त्' के स्थान पर द्वित्व'त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-१३४ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण'
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