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346 : प्राकृत व्याकरण
प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'खत्तिआणं" रूप सिद्ध हो जाता है।
'बले' प्राकृत-साहित्य का रूढ़-अर्थक एवं रूढ-रूपक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। साहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। ।। २-१८५।।
किरेर हिर किलार्थे वा ।। २-१८६।। किर इर हिर इत्येते किलार्थे वा प्रयोक्तव्याः॥ कल्लं किर खर हिअओ। तस्स इर। पिअ-वयं सो हिर॥ पक्षे। एवं किल तेण सिविणए भणिआ॥
अर्थः- संस्कृत में प्रयुज्जमान सम्भावना वाचक अव्यय 'किल' के स्थान पर प्राकृत साहित्य में वैकल्पिक रूप से 'किर' 'इर' 'हिर' अव्ययों का प्रयोग किया जाता है। तदनुसार प्राकृत साहित्य में संस्कृतीय 'किल' अव्यय भी प्रयुक्त होता है और कभी-कभी 'किर, इर, और 'हिर' अव्ययों में से किसी भी एक का प्रयोग किल' के स्थान पर किया जाता है, उदाहरण इस प्रकार है:- कल्ये किल खर-हृदयः कल्लं किर खर हिअओ अर्थात् संभावना है कि प्रातःकाल में (वह) कठोर हृदय वाला था; तस्य किल-तस्य इर अर्थात् संभावना (है कि) उसका (है); प्रिय वयस्यः किल=पिअवयंसो हिर-संभावनाः (है कि वह) प्रिय मित्र (है)। पक्षान्तर रूप से 'किल' के स्थान पर 'किल' के प्रयोग का उदाहरण इस प्रकार है:- एवं किल तेन स्वप्न के भणिताः एवं किल तेण सिविणए भणिआ अर्थात् सम्भावना (है कि) इस प्रकार (की बातें) उस द्वारा स्वप्न-अवस्था में कही गई है। यों सम्भावना वाचक अव्यय के स्थान पर प्राकृत-साहित्य में चार शब्द प्रयुक्त होते हैं; जो कि इस प्रकार है :- १ किर, २ हर, ३ हिर और किल। __ 'कल्ये' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; ३-१३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'किल' संस्कृत सम्भावना-अर्थक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'किर' होता है इसमें सूत्र संख्या २-१८६ से 'किल' के स्थान पर 'किर' आदेश की प्राप्ति होकर 'किर'रूप सिद्ध हो जाता है।
'खर-हृदयः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खर-हिअओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द' और 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खर-हिअओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तस्य' संस्कृत षष्ठयन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तस्स होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से मूल रूप 'तत्' के द्वितीय 'त्' का लोप और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
"किल' संस्कृत संभावना-अर्थक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इर' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८६ से 'किल' के स्थान पर 'इर' आदेश की प्राप्ति होकर 'इर' रूप सिद्ध हो जाता है।
"प्रिय-वयस्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिअ-वयंसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से प्रथम 'य' का लोप; १-२६ से द्वितीय 'य' में स्थित 'अ' स्वर पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति २-७८ से तृतीय 'य' व्यञ्जन का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पिअ-वयंसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"किल' संस्कृत संभावना-अर्थक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिर' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८६ से "किल' के स्थान पर 'हिर' आदेश की प्राप्ति होकर 'हिर' रूप सिद्ध हो जाता है।
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