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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 347 "एवं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। "किल' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'किल ही होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८६ से किल ही यथावत् रहकर 'किल' रूप सिद्ध ही है। 'तेन' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से मूल रूप तत् के द्वितीय 'त्' का लोप; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णप्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'त' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'तेण' रूप सिद्ध हो जाता है। "स्वप्नके संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिविणए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से प्राप्त रूप 'स्वि' में स्थित व्' का लोप; १-२३१ से 'प्' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति; २-१०८ से 'न' के पूर्व में 'इ' की प्राप्ति होकर हलन्त 'व' में से 'वि' का सद्भाव; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१६४ से 'स्वार्थ' रूप में संस्कृत 'क' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में भी 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'व प्त 'क' में से हलन्त 'क्का लोप; और २-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङ्केि स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'डे' प्रत्यय के पूर्व में स्थित लुप्त 'क्' के शेषांश 'अ' की इत्संज्ञा के कारण 'अ' का लोप होकर 'सिविणए रूप सिद्ध हो जाता है। 'भणिताः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होकर 'भणिआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८६।। णवर केवले ॥ २-१८७॥ केवलार्थे णवर इति प्रयोक्तव्यम्।। णवर पिआई चिअ णिव्वडन्ति।। अर्थ:- संस्कृत अव्यय 'केवल' के स्थान पर प्राकृत में णवर' अथवा 'णवर अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे-केवलम् प्रियाणि एवं भवन्ति=णवर (णवर) पिआई चिअणिव्वडन्ति =अर्थात् केवल प्रिय (वस्तुएं) ही (सार्थक) होती है। ___ 'केवलम्' संस्कृत 'निर्णीत सपूर्ण रूप-एकार्थक' अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णवर' अथवा 'णवर होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८७ से केवलम्' के स्थान पर 'णवर' अथवा 'णवरं आदेश की प्राप्ति होकर णवर अथवा णवरं रूप सिद्ध हो जाता है। __ "प्रियाणी' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिआई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'आणि' के स्थान पर प्राकत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२६ से 'ही' प्राप्त प्रत्यय 'ईके पूर्व में स्थित लुप्त 'य' के शेषांश हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर 'पिआई"रूप सिद्ध हो जाता है। चिअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या र-९९ में की गई है। 'भवन्ति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णिव्वडन्ति' (भी) होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६२ से 'भव्' धातु के स्थान पर 'णिव्वड्रू प का आदेश; ४-२३९ से हलन्त व्यञ्जन 'ड्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'णिव्वडन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-१८७॥ आनन्तर्ये णवरि ॥ २-१८८॥ आनन्तर्ये णवरीति प्रयोक्तव्यम्। णवरि असे रहु-वइणा।। केचित्तु केवलानन्तर्यार्थयोर्ण वर-णवरि इत्येकमेव सूत्रं कुर्वते तन्मते उभावप्युभयार्थो।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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