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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 11
'मकर- ध्वज-शर-धोरणि-धारा-छे दा' संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मयर-द्धय-सर-धोरणि-धारा-छेअ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष रहे 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-७९ से 'व' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' की द्वित्व ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप और १-४ से अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'मयर-द्धय-सर-धोरणि-धारा-छेअ रूप सिद्ध हो जाता है। 'व्व' की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'दृश्यन्ते' संस्कृत क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दीसन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१६१ से 'दृश्य के स्थान पर 'दीस्' आदेश ४-२३९ से हलन्त प्राप्त 'दीस्' धातु में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दीसन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उपमासु' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उवमासु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में 'सुप् प्रत्यय की प्राप्ति; एवं १-११ से अन्त्य व्यञ्जन प्रत्ययस्थ 'प्' का लोप होकर 'उवमासु रूप सिद्ध हो जाता है।
'अपर्याप्तेभ (कलभ) दन्तावभासम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'अपज्जत्तेभ-कलभ दन्तावहासं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन ‘र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'ज्जा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-७७ से 'प' का लोप २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-१८७ से तृतीय 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'अपज्जत्तेभ-कलभ-दन्तावहासं रूप सिद्ध हो जाता है।
ऊरुयुगम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ऊरुजुअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ग्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'ऊरुजु रूप सिद्ध हो जाता है।
'तदेव' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तं एव' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से (संस्कृत मूल रूप तत् में स्थित) अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार और 'एव' की स्थिति संस्कृत वत् ही होकर 'तं एव' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मृदित बिस दण्ड विरसम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मलिअ-बिस-दण्ड-विरसं होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१२६ से 'मद' धात के स्थान पर 'मल' आदेश; ३-१५६ से प्राप्त रूप'मल'
से प्राप्त रूप 'मल' में विकरण प्रत्यय रूप'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मलिअ-बिस-दण्ड-विरसं रूप सिद्ध हो जाता है।
'आलक्षयामह' सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आलक्खिमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ४-२३९ से हलन्त धातु' आलक्खे में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से 'ख' में प्राप्त 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और ३-१४४ से उत्तम पुरुष याने तृतीय पुरुष के बहुवचन में वर्तमान काल में 'मह' के स्थान पर 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आलक्खिमो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इदानीम्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'एण्हि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३४ से सम्पूर्ण अव्यय
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