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10 प्राकृत व्याकरण
'ए' आया हुआ है। परन्तु इनकी संधि नहीं की गई है। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये। उपरोक्त गाथाओं की संस्कृत - छाया इस प्रकार है:
वध्वाः (वधू-कायाः) नखोल्लेखने आबध्नत्या कञ्चुकमङ्गे । मकरध्वज-शर-धोरणि-धारा छेदा इव दृश्यन्ते ॥१॥ उपमासु अपर्याप्ते भदन्तावभासमूरुयुगम्। तदेव मृदित बिस दण्ड विरसमालक्षयामह इदानीम् ॥२॥
'ओ' के पश्चात् 'अ' आने पर भी इनकी परस्पर में संधि नहीं हुआ करती है। जैसे:- अहो आश्चर्यम् = अहो अच्छरिअं ।
प्रश्नः - 'ए' अथवा 'ओ' के पश्चात् आने वाले स्वरों की परस्पर में संधि नहीं होती है-ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- अन्य सजातीय स्वरों की संधि हो जाती है एवं 'अ' अथवा 'आ' के पश्चात् आने वाले 'इ' अथवा 'उ' की संधि भी हो जाया करती है। जैस- गाथा द्वितीय में आया है कि- 'अपज्जत + इभ' = अपज्जतेभ; दन्त + अवहास - दन्तावहास । गाथा तृतीय में आया है कि अत्थ + आलोअण अत्थालोअण; इत्यादि । यों अन्य स्वरों की संधि-स्थिति एवं 'ए' अथवा 'ओ' की संधि-स्थिति का अभाव बतलाने के लिए 'ए' अथवा 'ओ' का मूल सूत्र में उल्लेख किया गया है। तृतीय गाथा की संस्कृत छाया इस प्रकार है :
अर्थालोचन - तरला इतरकवीनां भ्रमन्ति बुद्धयः । अर्थाएव निरारम्भं यन्ति हृदयं कवीन्द्राणाम् ॥३॥
'वधूकायाः ' संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वहुआइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व 'उ' ३ - २९ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में उकारान्त स्त्रीलिंग में 'या' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - १७७ से 'क्' का लोप होकर 'वहुआइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नखोल्लेखने' संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नहुल्लिहणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १९८७ से दोनों 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-८४ से 'ओ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; १ - १४६ से प्रथम 'ए' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति २ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थानीय रूप 'इ' के स्थान पर प्राकृत में भी 'ए' की प्राप्ति होकर 'नहुल्लिहणे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आबध्नत्याः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आबन्धन्तीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६ से 'ब' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १- ३० से प्राप्त अनुस्वार के आगे 'ध' व्यञ्जन होने से अनुस्वार; के स्थान पर 'न्' की प्राप्ति; ३ - १८१ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी वर्तमान कृदन्त के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - १८२ से प्राप्त 'न्त' प्रत्यय में स्त्रीलिंग होने से 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; तदनुसार 'न्ती' की प्राप्ति; और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में ईकारान्त स्त्रीलिंग में ३ - २९ से संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आबन्धन्ती ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कञ्चुकम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कञ्चुअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से द्वितीय 'क' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कञ्चुअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अंगे' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'अंगे' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ - ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग में 'ङि' के स्थानीय रूप 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' की प्राप्ति होकर 'अंगे' रूप सिद्ध हो जाता है।
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