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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 133 द्वितीय रूप कुऊहलिए में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप कुऊहलिए भी सिद्ध हो जाता है। ___ उदूखलः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ओहलो और उऊहलो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओहलो में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'दू' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उदू शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओहलो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप उऊहलो में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उऊहलो भी सिद्ध हो जाता है। उलूखलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ओक्खलं और उलूहल होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओक्खलं में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'लू' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उलू' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; २-८९ से 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ओक्खलं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप उलूहलं में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उलूहलं भी सिद्ध हो जाता है। __ मोरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मोरो' रूप सिद्ध हो जाता है। मयूरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मऊरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मऊरो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१७१।। अवापोते ॥ १-१७२ ।। अवापयोरूपसर्गयोरूत इति विकल्पार्थ-निपाते च आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ओद् वा भवति। अव। ओअरइ। अवयरइ। ओआसो अवयासो।। अप। ओसरइ अवसरइ। ओसारिअं अवसारि। उत। ओ वणं। ओ घणो। उअ वणं। उअ घणो॥ क्वचिन्न भवति। अवगय। अवसद्दो। उअ रवी।। __ अर्थ:-'अव' और 'अप' उपसर्गो के तथा विकल्प-अर्थ सूचक 'उत' अव्यय के आदि स्वर सहित परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव', 'अप' और 'उत' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति होती है। जैसे-'अव' के उदाहरण इस प्रकार है :-अवतरति-ओअरइ और अवयरइ। अवकाशः ओआसो और अवयासो। 'अप' उपसर्ग के उदाहरण इस प्रकार है :-अपसरति ओसरइ और अवसरइ। अपसारितम् ओसारिअं और अवसारिआ। उत अव्यय के उदाहरण इस प्रकार है :-उतवनम्=ओ वणं। और उअ वणं। उतघनः=ओ घणो और उअ घणो।। किन्हीं किन्हीं शब्दों में 'अव' तथा 'अप' उपसर्गो के और 'उत' अव्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति नहीं हुआ करती है। जैसे अवगतम्=अवगयं। अपशब्दः अवसद्दो। उत रविः-उअ रवी।। अवतरति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप ओअरइ और अवयरइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओअरइ में सूत्र-संख्या १-१७२ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत-प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओअरइ सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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