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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 371 'स्वयम्' संस्कृत अव्ययात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व्' का लोप; और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सयं रूप सिद्ध हो जाता है। 'चेअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८४ में की गई है।
'जानासि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुणसि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से संस्कृतीय मूल धातु 'ज्ञा' के स्थानीय रूप 'जान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मुण' आदेश; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'मुण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमान काल के एकवचन में द्वितीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुणसि' रूप सिद्ध हो जाता है। 'करणिज्ज रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४८ में की गई है। ।। २-२०९।।
प्रत्येकमः पाडिक्कं पाडिएक्कं ।। २-२१०।। प्रत्येकमित्यस्यार्थे पाडिक्कं पाडिएक्कं इति च प्रयोक्तव्यं वा। पाडिक्क। पाडिएक्कं पक्षे। पत्ते।
अर्थः- संस्कृत 'प्रत्येकम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत में 'पाडिक्क' और 'पाडिएक्क' रूपों का प्रयोग किया जाता है। पक्षान्तर में पत्तेअं रूप का भी प्रयोग होता है। जैसे:- प्रत्येकम्=पडिक्कं अथवा पाडिएक्कं अथवा पत्ते।
'प्रत्येकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पाडिक्क' 'पाडिएक्क' और 'पत्ते होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या २-२१० से 'प्रत्येकम्' के स्थान पर 'पाडिक्क' और पाडिएक्क' रूपों की क्रमिक आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'पाडिक्कं' और 'पाडिएक्कं' सिद्ध हो जाता है। . तृतीय रूप (प्रत्येकम्=) पत्तेअं में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १–१७७ से 'क्' का लोप; और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर पत्तेअंरूप सिद्ध हो जाता है।। २-२१०।।
उअ पश्च ।। २-२११॥ उअ इति पश्चेत्यस्यार्थे प्रयोक्तव्यं वा। उअनिच्चल-निप्फंदा भिसिणी-पत्तमि रेहइ बलाआ। निम्मल-मरगय-भायण-परिट्ठिआ संङ्ख-सुत्ति व्व।। पक्षे पुलआदयः।।
अर्थः- 'देखो' इस मुहावरे के अर्थ में प्राकृत में 'उअ अव्यय का वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जाता है। जैसे:पश्य-उअ अर्थात् देखो। 'ध्यान आकर्षित करने के लिये' अथवा 'सावधानी बरतने के लिये 'अथवा' चेतावनी देने के लिये हिन्दी में 'देखो' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी तात्पर्य को प्राकृत में व्यक्त करने के लिये 'उअ अव्यय को प्रयुक्त करने की परिपाटी है। भाव-स्पष्ट करने के लिये नीचे एक गाथा उद्धृत की जा रही है:संस्कृतः- पश्च निश्चल-निष्पन्दा बिसिनि-पत्रे राजते बलाका।।
निर्मल-मरकत-भाजन प्रतिष्ठिता शंख-शुक्तिरिव॥१॥ प्राकृतः- उअ निच्चल-निप्फंदा भिसिणी-पत्तमि रेहइ बलाआ।
निम्मल-मरगय-भायण-परिट्ठिआ संङ्ख-सुत्तिव्व।।१।। अर्थः- 'देखो'-शान्त और अचंचल बगुली (तालाब का सफेद-वर्णीय मादा पक्षी विशेष) कमलिनी के पत्ते पर इस प्रकार सुशोभित हो रही है कि मानो निर्मल मरकत-मणियों से खचित बर्तन में शंख अथवा सीप प्रतिष्ठित कर दी गई हो अथवा रख दी गई हो। उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि 'बलाका-बगुली' की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये व्यक्ति
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