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372 : प्राकृत व्याकरण
विशेष अपने साथी को कह रहा है कि 'देखो - (प्रा. उअ ) ' कितना सुन्दर दृश्य है' इस प्रकार 'उअ' अव्यय की उपयोगिता एवं प्रयोगशीलता जान लेना चाहिये । पक्षान्तर में 'उअ' अव्यय के स्थान पर प्राकृत में 'पुलअ' आदि प्रन्द्रह प्रकार के आदेश रूप भी प्रयुक्त किये जाते हैं; जो कि सूत्र संख्या ४ - १८१ में आगे कहे गये हैं। तदनुसार 'पुलअ' आदि रूपों का तात्पर्य भी 'अ' अव्यय के समान ही जानना चाहिये।
'पश्य' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १११ से पश्य' के स्थान पर प्राकृत में 'अ' आदेश की प्राप्ति होकर 'उअ' अव्यय रूप सिद्ध हो जाता है।
'निश्चल-निष्पन्दा' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निच्चल - निप्फंदा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से प्रथम 'श्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'शू' के पश्चात शेष रहे हुए 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति ; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' के स्थान पर 'प्' की प्राप्ति; और १ - २५ से हलन्त 'न्' के स्थान पर पूर्वस्थ 'फ' वर्ण पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'निच्चल - निप्फंदा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बिसिनी–पत्रे' संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिसिणी- पंत्तमि' होता है। इस शब्द-समूह में से ‘भिसिणी' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २३८ में की गई है; शेष 'पत्तमि' में सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' के स्थान पर द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३ - ११ सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थानीय रूप 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ की वृत्ति से हलन्त प्रत्ययस्थ 'म्' का अनुस्वार होकर 'भिसिणी - पंत्तमि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'राजते' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रेहइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- १०० से संस्कृत धातु 'राज्' के स्थान पर प्राकृत में 'रेह' आदेश; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'रेह्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रेहइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बलाका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बलाआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप विसर्ग- व्यञ्जन का लोप होकर 'बलाआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निर्मल- - मरकत-भाजन - प्रतिष्ठित संस्कृत समासात्मक विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निम्मल-मरगय-भायण - परिट्टिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से रेफ रूप प्रथम 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए रेफ रूप 'र्' के पश्चात शेष रहे हुए (प्रथम) 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; ४-४४७ से और १ - १७७ की वृत्ति से 'क' के स्थान पर व्यत्यय रूप 'ग' की प्राप्ति; १ - १७७ से प्रथम 'त' का लोप; १ - १८० से लोप हुए (प्रथम) 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ'
स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १ - २२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १ - ३८ से 'प्रति' के स्थान पर 'परि' आदेश; २-७७ से ‘ष्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ष्' के पश्चात शेष रहे हुए 'ट्' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'टू' की प्राप्ति; और १ - १७७ से अन्त्य 'ता' में स्थित 'त्' का लोप होकर संपूर्ण समासात्मक रूप 'निम्मल - मरगय भायण परिद्विआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शंख-शुक्तिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सङ्घ-सुत्ती होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से दोनों 'श' व्यञ्जनों के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - ३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'ख' व्यञ्जन होने से कवर्गीय पंचम- अक्षर की प्राप्ति; २-७७ से ‘क्ति' में स्थित हलन्त् 'क्' व्यञ्जन का लोप; २-८९ से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर सङ्घ-सुत्ती रूप सिद्ध हो जाता है।
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