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370 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- 'अम्मो' प्राकृत-साहित्य का आश्चर्य वाचक अव्यय है। जहाँ आश्चर्य व्यक्त करना हो; वहाँ अम्मो' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- (आश्चर्यमेतत्-) अम्मो कथम् पार्यते-अम्मो कह पारिज्जइ अर्थात् आश्चर्य है कि यह कैसे पार उतारा जा सकता है ? तात्पर्य यह है कि इसका पार पा जाना अथवा पार उतर जाना निश्चय ही आश्चर्यजनक है।
'अम्मो' प्राकृत साहित्य का रूढ-रूपक और रूढ-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। 'कह' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
'पार्यते संस्कृत कर्मणि-प्रधान क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पारिज्जई' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१६० से मूल धातु 'पार्' में संस्कृत कर्मणि वाचक प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से 'पार्' धातु के हलन्त 'र' में 'इज्ज' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत-प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पारिज्जइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०८||
स्वयमोर्थे अप्पणो न वा ।। २-२०९।। - स्वयमित्यस्यार्थे अप्पणो वा प्रयोक्तव्यम्। विसयं विअसन्ति अप्पणो कमल-सरा। पक्षे। सयं चेअ मुणसि करणिज्जं॥
अर्थः- 'स्वयम्' इस प्रकार के अर्थ में वैकल्पिक रूप से प्राकृत में 'अप्पणो अव्यय का प्रयोग किया जाता है। 'स्वयम्=अपने आप ऐसा अर्थ जहां व्यक्त करना हो; वहाँ पर वैकल्पिक रूप से 'अप्पणो' अव्ययात्मक शब्द लिखा जाता है। जैसे:- विशदं विकसन्ति स्वयं कमल-सरासि-विसयं विअसन्ति अप्पणो कमल-सरा अर्थात कमल युक्त तालाब स्वयं (हो) उज्जवल रूप से विकासमान होते हैं। यहां पर 'अप्पणो' अव्यय 'स्वयं का द्योतक है वैकल्पिक पक्ष होने से जहां 'अप्पणो' अव्यय प्रयुक्त नहीं होगा; वहां पर 'स्वयं के स्थान पर प्राकृत में 'सयं रूप प्रयुक्त किया जायगा। जैसे:- स्वयं चेव जानासि करणीयं-सयं चेअ मुणसि करणिज्जं अर्थात् तुम खुद ही (स्वयमेव)-कर्त्तव्य को जानते हो। इस उदाहरण में 'स्वयं के स्थान पर 'अप्पणो' अव्यय प्रयुक्त नहीं किया जाकर 'सय रूप प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार वैकल्पिक-स्थिति समझ लेना चाहिये। ___ "विशदम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विसयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विसय रूप सिद्ध हो जाता है।
"विकसन्ति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विअसन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; ४-२३९ से हलन्त धातु 'विअस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विअसन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्वयं संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अप्पणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२०९ से स्वयं के स्थान पर 'अप्पणो' आदेश की प्राप्ति होकर 'अप्पणो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'कमल-सरासि' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कमल-सरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३२ से मूल संस्कृत शब्द कमल-सरस्' को संस्कृतीय नपुंसकत्व से प्राकृत में पुल्लिगत्व की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन ‘स्' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के पूर्वस्थ 'र' व्यञ्जन में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'कमल-सरा' रूप सिद्ध हो जाता है।
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