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26 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; १-४ से अथवा १-८४ से पदस्थ द्वितीय 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और १-२४ की वृत्ति से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'सक्खं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'यत् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ज' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'जं रूप सिद्ध हो जाता है।
'तत्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'तं रूप सिद्ध हो जाता है। __ "विष्वक् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वीसु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४३ से हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; २-७९ से द्वितीय 'व' का लोप; १-२६० से लोप हुए 'व् के पश्चात् शेष रहे हुए 'ष' को 'स' की प्राप्ति; १-५२ से प्राप्त व्यञ्जन 'स' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'वीसुंरूप सिद्ध हो जाता है।
'पृथक् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३७ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'पिहं रूप सिद्ध हो जाता है।
'सम्यक् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सम्म होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'सम्म रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ऋधक्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२४ से अन्त्य 'क्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'इह रूप सिद्ध हो जाता है।
'इहक' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इहय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'क्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'क' का लोप और १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-२६ से अन्त्य स्वर 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'इहयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'आश्लेष्टकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आलेठूअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'श्का लोप; २-३४ से 'ष्ट्र' के स्थान पर '' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'लू' को द्वित्व'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ठ् के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'क्' का लोप और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'आलेठुअं रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२४।।
ङ-ब-ण-नो व्य ञ्जने ।। १-२५।। ___ - न् इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भवति।। ङ। पङ्क्तिः । पंती॥ पराङ्मुखः। परंमुहो। बा कञ्चुकः। कंचुओ।। लाञ्छनम्। लंछण।। ण। पण्मुखः। छंमुहो।। उत्कण्ठा। उक्कंठा।। न। सन्ध्या। संझा।। विन्ध्यः। विंझो।।
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