SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 27 अर्थः-संस्कृत शब्दों में यदि 'ङ्''''ण' और 'न्' के पश्चात व्यञ्जन रहा हुआ हो तो इन शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में इन ‘ङ्' '' 'ण' और 'न्' के स्थान पर (पूर्व व्यञ्जन पर) अनुस्वार की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- 'ङ्' के उदाहरण:पङ्क्तिः = पंती और पराङ्मुखः परंमुहो। 'ब्' के उदाहरणः कञ्चुकः कंचुओ और लाञ्छनम्-लंछण। 'ण' के उदाहरणः- षण्मुखः छंमुहो और उत्कण्ठा-उक्कंठा। 'न्' के उदाहरणः- सन्ध्या संझा और विन्ध्यः-विंझो; इत्यादि। __ पङ्क्ति - संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पंती' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ङ् के स्थान पर (पूर्व व्यञ्जन पर) अनुस्वार की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में स्थित हलन्त 'क्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर 'पंती' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पराङ्मुख' -संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'परंमुहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'रा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ङ्' के स्थान पर (पूर्व व्यञ्जन पर) अनुस्वार की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'परंमुहो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कञ्चुकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कंचुओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन '' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कंचुओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'लाञ्छनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लंछणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ला' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन '' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'लंछणं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'षण्मुखः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छंमुहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छंमुहो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'उत्कण्ठा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उक्कंठा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व'क्क' की प्राप्ति और १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'उक्कंठा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'सन्ध्या' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संझा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और २-२६ से 'ध्य्' के स्थान पर 'झ्' की प्राप्ति होकर 'संझा' रूप सिद्ध हो जाता है। "विन्ध्यः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विंझो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; २-२६ से 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विंझो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२५।। वक्रादावन्तः ।। १-२६ ।। वक्रादिषु यथा दर्शनं प्रथमादेः स्वरस्य अन्त आगम रूपोऽनुस्वारो भवति।। वंक। सं। असुं। मंसू। पुंछं। गुंछ। मुंढा। पंसू। बुध। कंकोडो। कुंपलंदसणं। विछिओ। गिंठी। मंजारो। एष्वाद्यस्य।। वयंसो। मणंसी। मसिणी। मणसिला। पडंसुआ एषु द्वितीयस्य।। अवरिं। अणिउतयं। अइमुत्तयं। अनयोस्तृतीयस्य।। वक्र॥त्र्यस्र। अश्रु। श्मश्रु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy