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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 25 उसभमजिअं च वन्दे । बहुलाधिकाराद् अन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारः । । साक्षात्। सक्खं । यत्। जं॥ तत्। तं॥ विष्वक्। वीसुं।। पृथक् पिहं ॥ सम्यक्। सम्मं इहं । इहयं। आलेट्टुअं। इत्यादि।। अर्थः- यदि किसी पद के अन्त में रहे हुए हलन्त 'म्' के पश्चात् कोई स्वर रहा हुआ हो तो उस पदान्त हलन्त 'म्' का वैकल्पिक रूप से अनुस्वार होता है। वैकल्पिक पक्ष होने से यदि उस हलन्त 'म्' का अनुस्वार नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में सूत्र संख्या १ - ११ से 'म्' के लिये प्राप्तव्य लोप- अवस्था का भी अभाव ही रहेगा; इसमें कारण यह है कि आगे 'स्वर' रहा हुआ है; तदनुसार उक्त हलन्त 'म्' की स्थिति 'म्' रूप में ही कायम रहकर उस हलन्त 'म्' में आगे रहे' हुए 'स्वर' की संधि हो जाती है। यों पदान्त हलन्त 'म्' के लिये प्राप्तव्य 'लोप- प्रक्रिया' के प्रति यह अपवाद-रूप स्थिति जानना । जैसे:- वन्दे ऋषभम् अजितम् = वन्दे उसभं अजिअं अथवा उसभमजिअं च वन्दे । इस उदाहरण में यह व्यक्त किया गया है कि प्रथम अवस्था में 'उसभं' में पदान्त 'म्' का अनुस्वार कर दिया गया है और द्वितीय अवस्था में 'उसभमजि में पदान्त 'म्' की स्थिति यथावत् कायम रक्खी जाकर उसमें आगे रहे हुए 'अ' स्वर की संधि-संयोजना कर दी गई है; एवं सूत्र संख्या १ - ११ से 'म्' के लिये प्राप्तव्य लोप-स्थिति का अभाव भी प्रदर्शित कर दिया गया है; यों पदान्त 'म्' की सम्पूर्ण स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये । 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कभी-कभी पदान्त में स्थित 'म्' के अतिरिक्त अन्त्य हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर भी अनुस्वार की प्राप्ति हो जाया करती है। जैसे:- साक्षात् - सक्खं; यत्-जं; तत्-तं; इन उदाहरणों में हलन्त 'त्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं- विष्वक्-वीसुं; पृथक् = पिहं; सम्यक्=सम्मं; ऋधक् इहं । इन उदाहरणों में हलन्त 'क्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। संस्कृत शब्द 'इहक' के प्राकृत रूपान्तर 'इहयं' में किसी भी व्यञ्जन के स्थान पर 'अनुस्वार' की प्राप्ति नहीं हुई है, किन्तु सूत्र संख्या १ - २६ से अन्त्य तृतीय स्वर 'अ' में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति हुई है। इसी प्रकार से संस्कृत रूप आश्लेष्टुम के प्राकृत रूपान्तर ' आलेट्ठअ' में सूत्र संख्या २ - १६४ से पदान्त 'म्' के पूर्व स्वार्थक-प्रत्यय 'क' की प्राप्ति होकर 'आलेट्ठअं रूप का निर्माण हुआ है; तदनुसार इस हलन्त अन्त्य 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति हुई है; यों 'पदान्त 'म्' और इससे संबंधित 'अनुस्वार' संबंधी विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिये। ऐसा तात्पर्य वृत्ति में उल्लिखित 'इत्यादि' शब्द समझना चाहिये। 'वन्दे' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'वन्दे' ही है। इसमें सूत्र संख्या ४- २३९ हलन्त धातु 'वन्द्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ४-४४८ से वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत की आत्मने पद-क्रियाओं में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' की प्राकृत में भी 'इ' की प्राप्ति; और १-५ से पूर्वस्थ विकरण प्रत्यय 'अ' के साथ प्राप्त काल-बोधक प्रत्यय 'इ' की संधि होकर 'वन्दे' रूप सिद्ध हो जाता है। 'ऋषभम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उसभ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'उसभ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'अजितम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अजिअं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३-५ द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'अजिअं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'उसभमजिअ रूप में सूत्र संख्या १-५ से हलन्त 'म्' में आगे रहे हुए 'अ' की संधि-संयोजना होकर संधि-आत्मक पद 'उसभमजिअं' सिद्ध हो जाता है। 'साक्षात्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सक्ख' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'सा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख्' को द्वित्व 'ख्ख' की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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