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24 प्राकृत व्याकरण
'धनुष्'=(धनुः) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'धणुहं' और 'धणू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १ - २२ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'धणुह' सिद्ध हो जाता है।
'द्वितीय रूप- (धनुष्- ) धणू' में सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' का लोप; १ - ३२ से प्राप्त रूप ' धणु' को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'धणू' भी सिद्ध हो जाता है। १-२२ ।।
मोनुस्वारः ||१ - २३ ।।
अन्त्य मकारस्यानुस्वारो भवति । जलं फलं वच्छं गिरिं पेच्छ । क्वचिद् अनन्त्यस्यापि। वणम्मि। वर्णमि।।
अर्थः- पद के अन्त में रहे हुए हलन्त 'म्' का अनुस्वार हो जाता है। जैसे:- जलम् - जलं; फलम् - फलं; वृक्षम-वच्छं; और गिरिम् पश्य = गिरिं पेच्छ । किसी किसी पद में कभी-कभी अन्त्य - याने पद के अन्तर्भाग में रहे हुए हलन्त 'म्' का भी अनुस्वार हो जाता है। जैसे:- वने वणम्मि अथवा वर्णामि । इस उदाहरण में अन्तर्भाग में रहे हुए हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये।
'जलम्' संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जल' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय और १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'जल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'फलम्' संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'फलं' होता है। इसमें उपरोक्त 'जल' के समान ही सूत्र संख्या ३-५ और १ - २३ से साधनिका की प्राप्ति होकर 'फल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वृक्षम' संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' 'स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च्' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'वच्छ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गिरिम्' संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गिरिं' होता है। इसमें उपरोक्त 'जल' के समान ही सूत्र संख्या ३-५ और १ - २३ से साधनिका की प्राप्ति होकर 'गिरिं रूप सिद्ध हो जाता है।
'पश्य' संस्कृत आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेच्छ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८१ से मूल हलन्त धातु 'दृश्' के स्थानीय रूप 'पश्य' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ्' आदेश की प्राप्ति; ४- २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'पेच्छ्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३- १७५ से आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राकृत में 'प्रत्यय - लोप' की प्राप्ति होकर 'पेच्छ' क्रियापद-रूप सिद्ध हो जाता है।
'वने' संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वणम्मि' और 'वर्णमि' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में 'डि' 'इ' प्रत्यय के स्थान पर संयुक्त 'म्मि' और १ - २३ से 'म्मि' में स्थित हलन्त 'म्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'वणम्मि' और 'वर्णमि' सिद्ध हो जाते हैं । १ - २३ ।।
वास्वरे मश्च ॥ १-२४॥
अन्त्य मकारस्य स्वरे परेऽनुस्वारो वा भवति । पक्षे लुगपवादो मस्य मकारश्च भवति ।। वन्दे उसभं अजिअं ।
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