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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 23 अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ट्' (अथवा 'ष्' के स्थान पर 'स्') की प्राप्ति; १ - ३१ से प्राप्त रूप 'पाउस' को प्राकृत में पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पाउसो' रूप सिद्ध हो जाता है । १-१९।।
आयुरप्सरसोर्वा ।। १ -२० ।।
एतयोरन्त्य व्यञ्जनस्य सो वा भवति ।। दीहाउसो दीहाऊ । अच्छरसा अच्छरा ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'आयुष्' और 'अप्सरस्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' और 'स्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'स' की प्राप्ति होती है। जैसे:- दीर्घायुष्- दीहाउसो अथवा दीहाऊ और अप्सरस्= अच्छरसा और अच्छरा ।
प्रत्यय
'दीर्घायुष्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दीहाउसो' और 'दीहाऊ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - ७९ से 'र्' का लोप; १-१८७ से 'घ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'य्' का लोप; १ - २० से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकरान्त पुल्लिंग रूप 'सि' स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दीहाउसो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- ' (दीर्घायुष्) ' दीहाऊ में सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १८७ से 'घ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य्' का लोप; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'ष्' का लोप और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'दीहाऊ' भी सिद्ध हो जाता है।
'अप्सरस्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अच्छरसा' और 'अच्छरा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - २१ से संयुक्त व्यञ्जन 'प्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च्' की प्राप्ति; १ - २० से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३ - ३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप ' अच्छरस' में स्त्रीलिंग - अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अच्छरसा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- ( अप्सरस्= ) अच्छरा में ' अच्छरस्' तक की साधनिका उपरोक्त रूप के समान; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और ३-३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप अच्छर में स्त्रीलिंग - अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अच्छरा' सिद्ध हो जाता है । १ - २० ॥
ककुभो हः ।। १ - २१ ।।
ककुभ् शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हो भवति ॥ कउहा ॥
अर्थ:-संस्कृत शब्द 'ककुभ् ' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'भू' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसे - ककुभ् =कउहा।
'ककुभ् ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कउहा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; १-२१ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप 'कउह' में स्त्रीलिंग-अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कउहा' रूप सिद्ध हो जाता है ॥१-२१॥
धनुषो वा ।।१ - २२ ।
धनुः शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हो वा भवति ॥ धणुहं । धणू ॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'धनुष' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'ह' की प्राप्ति होती है । जैसे- धनुः = (धनुष = ) धणुहं और धणू ||
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