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________________ 22 प्राकृत व्याकरण 'गिर्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गिरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १६ से अन्त्य रेफ रूप 'र्' के स्थान पर 'रा' आदेश होकर 'गिरा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'धुर्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धुरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १६ से अन्त्य रेफ रूप 'र्' के स्थान पर 'रा' की आदेश - प्राप्ति होकर 'धुरा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पुर्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १६ से अन्त्य रेफ रूप 'र्' के स्थान पर 'रा' आदेश होकर 'पुरा' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-१६ ।। क्षुधा ।। १-१७ ।। क्षुध् शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हादेशो भवति । छुहा ॥ अर्थः- संस्कृत भाषा के ' क्षुध्' शब्द के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन ' ध्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'हा' आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:- क्षुध्= छुहा॥ 'क्षुध्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छुहा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १७ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति और १ - १७ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन ' ध्' के स्थान पर 'हा' आदेश होकर 'छुहा' रूप सिद्ध हो जाता है। १-१७।। शरदादेरत् ।। १-१८। शरदादेरन्त्य व्यञ्जनस्य अत् भवति ।। शरद् । सरओ ।। भिसक्। भिसओ ॥ अर्थः- संस्कृत भाषा के 'शरद्' 'भिसक्' आदि शब्दों के अन्त्यस्थ हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होती है जैसे- शरद् - सरओ और भिसक्- भिसओ इत्यादि । । 'शरद्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सरओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - १८ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में ‘सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' की प्राप्ति; 'ओ' के पूर्वस्थ 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप होकर 'सरओ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'भिषक् ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिसओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति १ - १८ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर उपरोक्त 'सरओ' के समान ही 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिसओ' रूप सिद्ध हो जाता है । १- १८ ॥ दिक्- प्रावृषोः सः ।। १-१९।। एतयोरन्त्य व्यञ्जनस्य सो भवति ।। दिसा । पाउसो || अर्थः- संस्कृत शब्द 'दिक्' और 'प्रावृट्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर 'स' का आदेश होता है जैसे- दिक् = दिसा और प्रावट् - पाउसो । 'दिक्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दिसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १९ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' स्थान पर प्राकृत में 'स' आदेश - प्राप्ति; और ३-३१ की वृत्ति से स्त्रीलिंग - अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दिसा' रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International 'प्रावृट्' (=प्रावृष्) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पाउसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १- १७७ से 'व्' का लोप; १ - १३१ से लोप हुए 'व्' के पश्चात शेष रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १ - १९ से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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