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332 : प्राकृत व्याकरण
___ 'निलयः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'निहेलणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'निलय' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'निहेलण' रूप का निपात; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत 'निहेलणं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'मघवान्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'मघोणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'मघवान्' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'मघोण रूप का निपात; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज प्राकृत 'मघोणो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'साक्षिणः' संस्कृत बहुवचनान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सक्खिणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति २-९० प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति और ३-२२ से (संस्कृत मूल शब्द साक्षिन् में स्थित अन्त्य हलन्त 'न्' में प्राप्त) प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में ‘णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सक्खिणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जन्म' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'जम्मणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६१ से 'न्म' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'म' के स्थान पर द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; २-१७४ से प्राप्त रूप 'जम्म' में अन्त्य स्थान पर 'ण' का आगम रूप निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर 'जम्मणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'महान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'महन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ की प्राप्ति; २-१७४ से प्राप्त रूप 'महन्' के अन्त में आगम रूप 'त' का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'महन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भवान्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'भवन्तो' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त महान् महन्तो रूप के समान ही होकर भवन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आशीः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'आसीसा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६० से 'श' के स्थान पर 'स् की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप; २-१७४ से प्राप्त रूप 'आसी' के अन्त में आगम रूप 'स्' का निपात और २-३१ की वृत्ति से एवं हेम व्याकरण २-४ से स्त्रीलिंग अर्थ में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आसीसा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'बृहत्तरम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'वड्डयर होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति: १-२३७ से 'ब' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; २-१७४ से 'ह' के स्थान पर द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; २-७७ से प्रथम हलन्त 'त्' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वड्डयरं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'हिमोरः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'भिमोरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ह' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिमोरो रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षुल्लकः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खुड्डओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-१७४ से द्वित्व ल्ल' के स्थान पर द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से
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