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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 333 प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खुड्डओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गायनः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'घायणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ग' के स्थान पर 'घ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'घायणो रूप सिद्ध हो जाता है।
"वडः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'वढो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ड' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वढो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ककुदम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'ककुछ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'द' के स्थान पर 'ध' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'ककुध रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'अकाण्डम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'अत्थक्क होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'अकाण्ड' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'अत्थक्क' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अत्थक्क' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लज्जावती' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'लज्जालुइणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'वाली' अर्थक संस्कृत प्रत्यय ‘वती' के स्थान पर देशज प्राकृत में लुइणी प्रत्यय का निपात होकर 'लज्जालुइणी' रूप सिद्ध हो जाता है। __'कुतूहलम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'कुड्डू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'कुतूहल' के स्थान पर देशज प्राकृत में कुड्ड' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुड्ड' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'चूतः' संस्कृत रूप (आम्रवाचक) है इसका देशज प्राकृत रूप 'मायन्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण 'मायन्द' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मायन्दो'रूप सिद्ध हो जाता है। __'माकन्दः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'मायन्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मायन्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विष्णुः संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'भट्टिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'विष्ण' के स्थान पर देशज प्राकत में भट्रिअरूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भट्टिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ "श्मशानम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'करसी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'श्मशानम्' के स्थान पर देशज प्राकृत में करसी' रूप का निपात होकर करसी रूप सिद्ध हो जाता है।
'असुराः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'अगया' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'असुराः' के स्थान पर देशज प्राकृत में अगया' रूप का निपात होकर अगया रूप सिद्ध हो जाता है।
खेलम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'खेड्ड' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ल' वर्ण के स्थान
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