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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 331 'व्युत्सर्जनम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'वोसिरणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'व्युत्सर्जन' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'वोसिरन' रूप का निपात; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत रूप 'वोसिरणं' सिद्ध हो जाता है। _ 'बहिर्मथुनम्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'बहिद्धा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'बहिर्मैथुन के स्थान पर देशज प्राकृत में 'बहिद्धा' रूप का निपात होकर 'बहिद्धा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कार्यम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'णामुक्कसि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'कार्य' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'णामुक्कसिअ रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत रूप ‘णामुक्कसि सिद्ध हो जाता है। 'क्वचित्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'कत्थइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप क्वचित् के स्थान पर देशज प्राकृत में 'कत्थई' रूप का निपात होकर 'कत्थइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'उद्वहति' संस्कृत समर्कम क्रिया रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'मुव्वहइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से आदि वर्ण 'उ' में आगम रूप 'म्' का नियात; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज प्राकृत रूप 'मुव्वहइ' सिद्ध हो जाता है। __ 'अपस्मारः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'वम्हलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'अपस्मार' के स्थान पर देशज प्राकृत में वम्हल' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज प्राकृत रूप ‘वम्हलो' सिद्ध हो जाता है। "उत्पलम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'कन्दुटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'उत्पल' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'कन्दुट्ट रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत रूप 'कन्दुटुं सिद्ध हो जाता है। __ 'धिधिक् संस्कृत अव्यय रूप है। इसके देशज प्राकृत रूप 'छिछि' और 'धिद्धि होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत 'धिक् धिक् के स्थान पर प्राकृत में 'छिछि' और 'धिद्धि' का क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से निपात होकर दोनो रूप 'छिछि' और 'धिद्धि' सिद्ध हो जाते हैं। "धिगस्तु' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'धिरत्थु होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ग' वर्ण के स्थान पर प्राकृत में 'र' वर्ण का निपात; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त्' के स्थान पर 'थ्' आदेश; २-८९ से आदेश प्राप्त 'थ्' का द्वित्व'थ्थ' और २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति होकर देशज प्राकृत 'धिरत्थु' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पडिसिद्धी' और 'पाडिसिद्धी' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। 'स्थासकम' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज अथवा आर्ष प्राकृत रूप 'चच्चिक' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'स्थासक' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'चच्चिक' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज रूप 'चच्चिक रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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