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________________ 330 : प्राकृत व्याकरण जायेगा। जैसे:-घृष्टाः-घटा; मृष्टा मट्ठा विद्वांसः-विउसा; श्रुत-लक्षणानुसारेण-सुअ-लक्खणाणुसारेण और वाक्यान्तरेषु च पुनः=वक्कन्तरे सु अ पुणो इत्यादि आर्ष-प्रयोग में अप्रचलित प्रयोगों का प्रयुक्त किया जाना अविरूद्ध स्थिति वाला ही समझा जाना चाहिये। ___ 'गौः संस्कृत रूप है। इसके आर्ष-प्राकृत रूप 'गोणो' और 'गावी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१७४ से 'गौ' के स्थान पर 'गोण' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गोणो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(गौ:-) 'गावी' में सूत्र संख्या २-१७४ से 'गौ के स्थान पर 'गाव' रूप का निपात; ३-३२ से स्त्रीलिंग-अर्थ में प्राप्त निपात रूप 'गाव' में 'डी' (दीर्घस्वर 'ई') की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ' इत् संज्ञक होने से 'गाव' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त रूप 'गाव्' के अन्त्य हलन्त 'व' में प्राप्त प्रत्यय 'ई' की संधि और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर द्वितीय रूप 'गावी' सिद्ध हो जाता है। 'गावः' संस्कृत बहुवचनान्त रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'गावीओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'गौ' के स्थान पर 'गाव' का निपात; ३-३२ से प्राप्त निपात रूप 'गाव' में स्त्रीलिंग अर्थ में 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त निपात रूप 'गाव' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप; १-५ से प्राप्त रूप 'गाव्' के अन्त्य हलन्त 'व्' में प्राप्त प्रत्यय 'ई' की संधि और ३-२७ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' अथवा 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गावीओ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'बलीवर्दः संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'बइल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण रूप 'बलीवर्द' के स्थान पर 'बइल्ल' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बइल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'आपः' संस्कृत नित्य बहुवचनान्त रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'आऊ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण रूप 'आप' के स्थान पर 'आउ' रूप का निपात; ३-२७ से स्त्रीलिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और वैकल्पिक पक्ष में ३-२७ से ही अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'आऊ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पञ्चपञ्चासत' संस्कृत संख्यात्मक विशेषण रूप है। इसके देशज प्राकृत रूप पञ्चावण्णा और पणपन्ना होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण रूप 'पञ्चाशत्' के स्थान पर 'पञ्चावण्णा' रूपों का क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से निपात होकर दोनों रूप ‘पञ्चावण्णा' और 'पणपन्ना' सिद्ध हो जाते हैं। "त्रिपञ्चाशत्' संस्कृत संख्यात्मक विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'तेवण्णा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप त्रिपञ्चाशत् के स्थान पर देशज प्राकृत में तेवण्णा रूप का निपात होकर 'तेवण्णा' रूप सिद्ध हो जाता है। "त्रिचत्वारिंशत् संस्कृत संख्यात्मक विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'तेआलीसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप त्रिचत्वारिंशत् के स्थान पर देशज प्राकृत में 'तेआलीसा' रूप का निपात होकर 'तेआलीसा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'व्युत्सर्गः' संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'विउसग्गो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-६ से संधि निषेध होने से संस्कृत-सधि रूप 'व्यु' के स्थान पर असंधि रूप से 'विउ' की प्राप्ति; २-७७ से 'त्' का लोप; २-७९ से रेफ रूप 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग' के स्थान पर द्वित्व ‘ग्ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विउसग्गो' रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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