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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 329
वाचस्पतिर्गुरू: विष्टरश्रवा हरिरित्यादि।। घृष्ट-शब्दस्य तु सोपसर्गस्य प्रयोग इष्यत एव। मन्दर-यड परिघटुं। तद्दिअस-निहट्ठाणङ्ग इत्यादि।। आर्षे तु यथादर्शनं सर्वमविरूद्धम्। यथा। घट्ठा। मट्ठा। विउसा। सुअ-लक्खणाणुसारेण। वक्कन्तरेसु अ पुणो इत्यादि।। __ अर्थः- इस सूत्र में कुछ एक ऐसे शब्दों का उल्लेख किया गया है; जिनमें प्राकृत-व्याकरण के अनुसार प्राप्त होने वाली प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम और वर्ण विकार आदि स्थितियों का आशय है और जो केवल संस्कृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले शब्दों के स्थान पर प्रायः प्रयुक्त किये जाते हैं। ऐसे शब्दों की स्थिति 'देशज-शब्द-समूह' के अन्तर्गत ही मानी जा सकती है। जैसे:- संस्कृत शब्द 'गौः' के स्थान पर गोणो अथवा गावी का प्रयोग होता है; ऐसे ही संस्कृत-शब्दों के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले देशज शब्दों की सामान्य-सूची इस प्रकार है:- गाव:=गावीओ; बलीवर्दः=बइल्लो; आपः-आऊ; पञ्चपञ्चाशत् पञ्चावण्णा अथवा पणवन्ना; त्रिपञ्चाशत् तेवण्णा; त्रिचत्वारिंशत्=तेआलीसा; व्युत्सर्गः-विउसग्गो; व्युत्सर्जनम्=वोसिरणं; बहिः अथवा मैथुनम् बहिद्धा; कार्यम्=णामुक्कसिअं; क्वचित-कत्थइ; उद्धहति-मुव्वहइ; अपस्मारः वम्हलो; उत्पलम्-कन्दुटुं; धिधिक्-छिछि अथवा धिद्धि; धिगस्तु-धिरत्थु; प्रतिस्प f=पडिसिद्धी अथवा पाडिसिद्धी; स्थासकः चच्चिकं; निलयः निहेलणं; मघवान् मघोणो; साक्षी सक्खिणो; जन्म-जम्मणं; महान् महन्तो; भवान् भवन्तो; आशी: आसीसा। कुछ एक संस्कृत शब्दों में स्थित 'ह' के स्थान पर देशज-शब्दों में कभी 'ड्ड' की प्राप्ति होती हुई देखी जाती है और कभी 'भ' की प्राप्ति होती हुई पाई जाती है। जैसे:-बृहत्तरम्-वड्डयरं
और हिमोर:-भिमोरो। कभी-कभी संस्कृत शब्द में रहे हुए 'ल्ल' के स्थान पर 'ड्ड' का सद्भाव पाया जाता है; जैसे:-क्षुल्लकः-खुड्डओ। कभी-कभी संस्कृत शब्दों में स्थित 'घोष-अल्प आण' प्रयत्न वाले अक्षरों के स्थान पर देशज-शब्दों में 'घोष-महा-प्राण प्रयत्न वाले अक्षरों का अस्तित्व देखा जाता है; अर्थात् वर्गीय तृतीय अक्षर के स्थान पर चतुर्थ अक्षर का सद्भाव पाया जाता है। जैसे:- गायनः घायणो; वड:-वढो और ककुदम् ककुधं इत्यादि। अन्य देशज एवं रूढ़ शब्दों के कुछ एक उदाहरण इस प्रकार हैं:- अकाण्डम् अत्थक्क; लज्जावती-लज्जालुइणी; कुतूहलम्=कुड्ड; चूतः-मायन्दो; कोई कोई व्याकरणाचार्य देशज शब्द मायन्दो का संस्कृत रूपान्तर माकन्दः भी करते हैं। सर्वथा रूढ़ देशज शब्द इस प्रकार हैं:- विष्णुः=भट्टिओ; श्मशानम् करसी; असुराः अगया; खेलम्-खेड्ड; पौष्परजः तिगिच्छः दिनम्-अल्लं, समर्थः-पक्कलो; पण्डकः=णेलच्छो; कर्पास:=पलही; बली-उज्जलो; ताम्बूलम्-झसुरं; पुचली-छिछिई; शाखा साहुली इत्यादि। बहुलम् अर्थात् वैकल्पिक-पक्ष का उल्लेख होने से 'गौः' का 'गउओ' रूप भी होता है; यह स्थिति अन्य शब्द-रूपों के संबंध में भी जानना। संस्कृत शब्द 'गोला' से देशज शब्द 'गोला' बनता है और 'गोदावरी' से 'गोआवरी' बनता है। अनेक देशज शब्द ऐसे है जो कि महाराष्ट्र प्रान्त और विदर्भ प्रान्त में बोले जाते हैं; प्रांतीय भाषा जनित होने से इनके "संस्कृत-पर्याय-वाचक शब्द" नहीं होते हैं। कुछ एक उदाहरण इस प्रकार है:- आहित्य, लल्लक्क, विड्डिर, पच्चडिअ, उप्पेहड, मडप्फर, पुड्डिच्छिर, अट्टमट्ट, विहडप्फड, अज्जल्ल, हल्लप्फल्ल इत्यादि; ऐसे शब्दों का अर्थ प्रान्तीय जनता के बोल-चाल के व्यवहार से जाना जा सकता है। कुछ प्रान्तीय रूढ क्रिया शब्दों के अर्थ भी प्रान्तीय जनता के बोलचाल के व्यवहार से ही जाना जा सकता है। इसी तरह से कृष्ट, धृष्ट, वाक्य विद्वस, वाचस्पति, विष्टर, श्रवस्, प्रचेतस्, प्रोषत और प्रोत इत्यादि शब्दों का; एवं क्विप प्रत्ययान्त शब्दों का जैसे कि-अग्निचित्, सोमसुत, सुग्ल और सुम्ल इत्यादि ऐसे शब्दों का तथा पूर्ववर्ती कवियों ने जिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया है उनका प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि इससे अर्थ-क्लिष्टता तथा प्रतीति विषमता जैसे दोषों की उत्पत्ति होती है। अतएव सरल शब्दों द्वारा अभिधेय-अर्थ को प्रकट करना चाहिए। जैसे:- कृष्ट के स्थान पर 'कुशल'; वाचस्पति के स्थान पर 'गुरू' और विष्टर श्रवा के स्थान पर 'हरि' जैसे सरल शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिये। घष्ट शब्द के साथ यदि कोई उपसर्ग जडा हआ हो तो इसका प्रयोग कि वांछनीय ही है। जैसे:-मंदर-तट-परिघृष्टम् मन्दरयड- परिघटुं तद्दिवस-निघृष्टानंगा तद्दिअस-निहट्टाणंगा इत्यादि; इन उदाहरणों में 'घृष्ट-घट्ट अथवा हट्ट प्रयुक्त किया गया है, इसका कारण यह है कि 'घृष्ट' के साथ क्रम से 'परि' एवं 'नि' उपसर्ग जुड़ा हुआ है; किन्तु उपसर्ग रहित अवस्था में 'घृष्ट' का प्रयोग कम ही देखा जाता है। आर्ष-प्राकृत में घृष्ट का प्रयोग देखा जाता है। इसका कारण पूर्व-वर्ती परम्परा के प्रति आदर-भाव ही है। जो कि अविरूद्ध स्थिति वाला ही माना
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