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________________ 328 : प्राकृत व्याकरण प्रश्नः- प्राकृत रूप जमलं की प्राप्ति कैसे होती है ? उत्तर:- प्राकृत रूप 'जमलं' में स्थित 'ल' स्वार्थ-बोधक प्रत्यय नहीं है; किन्तु मूल संस्कृत रूप 'यमलम्' का ही यह प्राकृत रूपान्तर है, तदनुसार 'ल' मूल-स्थिति से रहा हुआ है; न कि प्रत्यय रूप से; यह ध्यान में रहे। विद्युत् से निर्मित 'विज्जुला' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है और 'विजू रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५ में की गई है। __ 'पत्रम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पत्तलं' और 'पत्तं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त'को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; २-१७३ से 'स्व-अर्थ में वैकल्पिक रूप से 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'पत्तलं' और 'पत्तं सिद्ध हो जाते हैं। 'पीवलं' और 'पीअलं' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१३ में की गई है। तृतीय रूप 'पीअं की सिद्धि भी सूत्र संख्या १-२१३ में की गई है। 'अन्धः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अन्धलो' और 'अन्धो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१७३ से 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'अन्धलो' और 'अन्धो' सिद्ध हो जाते हैं। 'यमलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जमलं' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'जमलं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७३।। गोणादयः ॥ २-१७४।। गोणादयः शब्दा अनुक्त-प्रकृति-प्रत्यय-लोपागम-वर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते।। गौः। गोणो। गावी।। गावः। गावीओ।। बलीवर्दः।। बइल्लो।। आपः। आऊ।। पञ्च पञ्चाशत्। पञ्चावण्णा। पणपन्ना। त्रिपञ्चाशत् । तेवण्णा।। त्रिचत्वारिंशत्। तेआलीसा।। व्युत्सर्गः। विउसग्गो।। व्युत्सर्जनम्। वोसिरण।। बहिर्मैथुनं वा। बहिद्वा।। कार्यम्। णामुक्कसि।। क्वचित्। कत्थइ।। उद्वहति। मुव्वहइ।। अपस्मारः। वम्हलो।। उत्पलम्। कन्दुटुं धिधिक। छिछि। धिद्धि।। धिगस्तु। धिरत्थ।। प्रतिस्पर्धा। पडिसिद्धी। पाडिसिद्धी।। स्थासकः। चच्चिक।। निलयः। निहेलणं। मघवान्। मघोणो। साक्षी। सक्खिणो। जन्म। जम्मण।। महान्। महन्तो। भवान्। भवन्तो।। आशीः। आसीसा।। क्वचित् हस्य डभौ।। बृहत्तरम्। वड्डयरं।। हिमोरः। भिमोरो।। ल्लस्य ड्डः। क्षुल्लकः। खुड्डओ। घोषाणामग्रेतनो गायनः। घायणो।। वडः। वढो।। ककुदम्। ककुध।। अकाण्डम्। अत्थक्क।। लज्जावती। लज्जालुइणी।। कुतूहलम्। कुड्ड।। चूतः। मायन्दो। माकन्द शब्दः संस्कृते पीत्यन्ये।। विष्णुः। भट्टिओ।। श्मशानम्। करसी।। असुराः। अगया।। खेलम्। खेड्ड।। पौष्पं रजः। तिङ्गिच्छि।। दिनम्। अल्लं।। समर्थः। पक्कलो। पण्डकः। णेलच्छो।। कर्पासः। पलही। बली। उज्जल्लो।। ताम्बूलम्। झसुर।। पुंश्चली। छिछई।। शाखा। साहुली॥ इत्यादि।। वाधिकारात् पक्षे यथादर्शनं गउओ इत्याद्यपि भवति।। गोला गोआवरी इति तु गोदागोदावरीभ्यां सिद्धम॥ भाषा शब्दाश्च। आहित्य। लल्लक्क। विडिर। पंचडिआ। उप्पेहड। मडप्फर। पडिच्छिर। अट्ट-मट्ट। विहडप्फड। अज्जल्ल। हल्लप्फल्ल इत्यादयो महाराष्ट्र विदर्भादिदेशद्य सिद्धा लोकतोवगन्तव्याः।। क्रिया शब्दाश्च। अवयासइ। फुम्फुल्लइ उप्फालेइ। इत्यादयः। अतएव च कृष्ट-घृष्ट-वाक्य विद्वस् वाचस्पति विष्ठर अवस्-प्रचेतस्-प्रोक्त-प्रोतादीनाम् क्विवादि प्रत्ययान्तानां च अग्निचित्सोमत्सुग्लसुम्लेत्यादीनां पूर्वः कविभिरप्रयुक्तानां प्रतीतिवैषम्यपरः प्रयोगो न कर्तव्यः शब्दान्तरैरेव तु तदर्थोभिधेयः। यथा कृष्टः कुशलः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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