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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 327
अर्थ में
रूप से 'र प्रत्यय की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'दीहर' और 'दीह सिद्ध हो जाते हैं। ।। २-१७१।।
त्वादेः सः ॥ २-१७२।। भावे त्व-तल् (हे .७-१) इत्यादिना विहितात्त्वादेः परः स्वार्थे स एव त्वादि र्वा भवति।। सृदुकत्वेन। मउअत्तयाइ।। आतिशायिका त्वातिशायिकः संस्कतवदेव सिद्धः। जेट्रयरो। कणिट्रयरो॥ __ अर्थः- आचार्य हेमचन्द्र कृत संस्कृत-व्याकरण में (हे. ७-१ सूत्र में) भ व-अर्थ में 'त्व' और 'तल्' प्रत्ययों की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है। प्राकृत-व्याकरण में भाव-अर्थ' में इन्हीं त्व' आदि प्रत्ययों की ही प्राप्ति वैकल्पिक रूप से तथा 'स्व-अर्थ-बोधकता' रूप से होती है। जैसे:- मदकत्वेन मउअत्तयाइ।। 'अतिशयता' सूचक प्रत्ययों से मिर्मित संस्कृत-शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में उन्हीं अतिशयता' सूचक प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; जो कि अतिशयता-सूचक'
में आये हैं। जैसे:-ज्येष्ठतर: जेट्रयरो। इस उदाहरण में संस्कृत-रूप में प्राप्त प्रत्यय 'तर' का ही प्राकृत रूपान्तर 'यर' हुआ है। यह 'तर' अथवा 'यर' प्रत्यय आतिशायिक स्थिति का सूचक है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:कनिष्ठतर कणि?यरो। इस उदाहरण में भी प्राप्त प्रत्यय 'तर' अथवा 'यर' तारतम्य रूप से विशष हीनता का सूचक होकर आतिशायिक-स्थिति का द्योतक है। यों अन्य उदाहरणों में भी संस्कृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले आतिशायिक स्थिति के द्योतक प्रत्ययों की स्थिति प्राकृत-रूपान्तर में बनी रहती है। ___ 'मृदुकत्वेन' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप (स्व-अर्थ बोधक प्रत्यय के साथ) 'मउअत्तयाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' और 'क्' का लोप; २-७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-३१ की वृति से स्त्रीलिंग-वाचक अर्थ में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१८० से प्राप्त स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मउअत्तयाइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ज्येष्ठतरः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जेट्टयरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ष' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ठ' के स्थान पर द्वित्व छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त हुए पूर्व'' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् रोष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जेट्टयरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'कनिष्ठतरः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कणिट्रयरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष सम्पूर्ण साधनिका उपरोक्त 'जेट्टयरो' रूप के समान ही होकर 'कणिट्टयरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७२।।
विद्युत्पत्र-पीतान्धाल्लः ।। २-१७३।। ___ एभ्यः स्वार्थे लो वा भवति। विज्जुला। पत्तल। पीवलं। पीअलं। अन्धलो। पक्षे। विज्जू। पत्तं। पीओ अन्धो॥ कथं जमलं। यमलमिति संस्कृत-शब्दात् भविष्यति।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द विद्युत, पत्र, पीत और अन्ध के प्राकृत-रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:-विद्युत् विज्जुला अथवा विज्जू; पत्रम्=पत्तलं अथवा पत्तं; पीतम्=पीवलं, पीअलं अथवा पीअं और अन्धः अन्धलो अथवा अन्धो।
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