________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 167
की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पइट्टाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
पइट्टा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३८ में की गई है।
प्रतिज्ञा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पइण्णा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति होकर पइण्णा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२०६।।
इत्वे वेतसे।। १-२०७।। वेतसे तस्य डो भवति इत्वे सति।। वेडिसो।। इत्व इति किम्; वेअसो।। इः स्वप्नादौ (१-४६) इति इकारो न भवति इत्व इति व्यावृत्तिवलात्।।
अर्थः-वेतस शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति उस अवस्था में होती है; जबकि 'त' में स्थित 'अ' स्वर सूत्र-संख्या १-४६ से 'इ' स्वर में परिणत हो जाता हो। जैसे:-वेतसः-वेडिसो।।
प्रश्नः-वेतस शब्द में स्थित 'त' में रहे हुए 'अ' को 'इ' में परिणत करने की अनिवार्यता का विधान क्यों किया है ?
उत्तर:-वेतस शब्द में स्थित 'त' का 'ड' उसी अवस्था में होगा; जबकि उस 'त' में स्थित 'अ' स्वर को 'इ' स्वर में परिणत कर दिया जाय; तदनुसार यदि 'त्' का 'ड' नहीं किया जाता है; तो उस अवस्था में 'त' में रहे हुए 'अ' स्वर को 'इ' स्वर में परिणत नहीं किया जायगा। जैसे:-वेतसः वेअसो।। इस प्रकार सूत्र-संख्या १-४६-(इः स्वप्नादौ)- के अनुसार 'अ' के स्थान पर प्राप्त होने वाली 'इ' का यहां पर निषेध कर दिया गया है। इस प्रकार का नियम 'व्याकरण की भाषा' में 'व्यावृत्तिवाचक' नियम कहलाता है। तदनुसार 'व्यावृत्ति के बल से' 'इत्व' की प्राप्ति नहीं होती है।
वेडिसोः-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४६ में की गई है।
वेतसः-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेअसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर वेअसा रूप सिद्ध हो जाता है॥१-२०७||
गर्भितातिमुक्तके णः।। १-२०८।। अनयोस्तस्य णो भवति॥ गब्मिणो अणिउँतयं। कचिन्नभवत्यपि। अइमुत्तय। कथम् एरावणो। ऐरावण शब्दस्य। एरावओ इति तु ऐरावतस्य।। ___ अर्थः-गर्भित और अतिमुक्तक शब्दों में स्थित 'त' को 'ण' की प्राप्ति होती है। अर्थात् 'त' के स्थान पर 'ण' का आदेश होता है। जैसे:-गर्भितः-गब्भिणो।। अतिमुक्तकम अणिउँतय।। कभी-कभी 'अतिमक्तक' शब्द में स्थित प्रथम 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती हुई नहीं देखी जाती है। जैसे:-अतिमुक्तकम्-अइमुत्तय।।
प्रश्नः-क्या 'एरावणो' प्राकृत शब्द संस्कृत 'ऐरावत्' शब्द से रूपान्तरित हुआ है ? और क्या इस शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति हुई है ?
उत्तरः-प्राकृत 'एरावणो' शब्द संस्कृत 'ऐरावणः' शब्द से रूपान्तरित हुआ है; अतः इस शब्द में 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। प्राकृत शब्द 'एरावओ' का रूपान्तर 'ऐरावतः संस्कृत शब्द से हुआ है। इस प्रकार एरावणो और एरावओ प्राकृत शब्दों का रूपान्तर क्रम से ऐरावणः और ऐरावतः संस्कृत शब्दों से हुआ है। तदनुसार एरावणो में 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है।
गर्भितः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप गम्भिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org