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168 : प्राकृत व्याकरण
२-८९ से 'भ' को द्वित्व ' भ्भ' की प्राप्ति २ - ९० से प्राप्त पूर्व ' भ्' को 'ब्' की प्राप्ति; १ - २०८ से 'त्' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गणो रूप सिद्धी हो जाता है।
अणित और अइमुत्तयं रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६ में की गई है।
रावणो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१४८ में की गई है।
एरावतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एरावओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एरावओ रूप की सिद्धी हो जाती है ।। १- २०८ ।।
रूदिते दिनाण्णः ।। १-२०९।।
रूदिते दिना सह तस्य द्विरुक्तो णो भवति । । रुण्णं ।। अत्र केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनी मागधी - विषय एव द्दष्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि । ऋतुः । रिऊ उऊ ।। रजतम् । रययं । । एतद् । एअं ।। गतः । गओ ॥ आगतः। आगओ।। सांप्रतम् । संपयं । । यतः । जओ ।। ततः । तओ ।। कृतम । कयं ।। हतम् । हय ।। हताशः । हयासो।। श्रुतः । सुओ।। आकृतिः । आकिई ।। निर्वृतः । निव्वुओ।। तातः । ताओ।। कतरः । कयरों ।। द्वितीयः । दुइओ । इत्यादयः प्रयोगा भवन्ति । न पुनः उदूरयदं इत्यादि । । क्वचित् भावे पि व्यत्ययश्च (४ - ४४७) इत्येव सिद्धम् ।। दिही इत्येतदर्थं तु धृतेर्हिहि: ( २ - १३१ ) इति वक्ष्यामः ।।
अर्थः- 'रूदित' शब्द में रहे हुए 'दि' सहित 'त' के स्थान पर अर्थात् 'दित' शब्दांश के स्थान पर द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति होती है। याने 'दित' के स्थान पर 'ण्ण' आदेश होता है जैसे:-रूदितम्-रूण्णं ।। 'त' वर्ण से संबधित विधि-विधानों के वर्णन में कुछ एक प्राकृत-व्याकरणकार 'ऋत्वादिषु द' अर्थात् ऋतु आदि शब्दों में स्थित 'त' का 'द' होता है' ऐसा कहते है; यह कथन प्राकृत भाषा के लिये उपयुक्त नहीं है। क्योंकि 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति शौरसेनी और मागधी भाषाओं में ही होती हुई देखी जाती है। न कि प्राकृत भाषा में ।। अधिकृत-व्याकरण प्राकृत भाषा का है; अतः इसमें 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति नहीं होती है। उपरोक्त कथन के समर्थन में कुछ एक उदाहरण इस प्रकार है:- ऋतुः = रिऊ अथवा 'उऊ'।। रजतम् - रययं । । एतद् = एअं । गतः - गओ ।। आगतः = आगओ ।। साप्रतम् = संपयं । । यतः -जओ ।। ततः तओ ।। कृतम्=कयं।। हतम्=हयं। । हताशः - हयासो । । श्रुतः-सुओ ।। आकृतिः- आकिई ।। निर्वृतः- निव्वुओ।। तातः=ताओ।। कतरः=कयरो।। और द्वितीय:- दुइओ ।। इत्यादि 'त' संबंधित प्रयोग प्राकृत भाषा में पाये जाते हैं ।। प्राकृत भाषा में 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति नहीं होती है। केवल शौरसेनी और मागधी भाषा में ही 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश होता है। इसके उदाहरण इस प्रकार हैं: - ऋतुः उदू अथवा रूदू ।। रजतम् = रयदं इत्यादि ।।
यदि किन्हीं - किन्ही शब्दों में प्राकृत भाषा में 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती हुई पाई जाय तो उसको सूत्र - संख्या ४-४४७ से वर्ण-व्यत्यय अर्थात् अक्षरों का पारम्परिक रूप से अदला-बदली का स्वरूप समझा जाय; न कि 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश माना जाय ।। इस प्रकार से सिद्ध हो गया कि केवल शौरसेनी एवं मागधी भाषा में ही 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती है; न कि प्राकृत भाषा में ।। 'दिही' ऐसा जो रूप पाया जाता है; वह धृति शब्द का आदेश रूप शब्द है; और ऐसा उल्लेख आगे सूत्र - संख्या २ - १३१ में किया जायगा । इस प्रकार उपरोक्त स्पष्टीकरण यह प्रमाणित करता है कि प्राकृत भाषा में 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश नहीं हुआ करता है; तदुनुसार प्राकृत- प्रकाश नामक प्राकृत-व्याकरण में 'ऋत्वादिषु तोदः 'नामक जो सूत्र पाया जाता है। उस सूत्र के समान अर्थक सूत्र - रचने की इस प्राकृत-व्याकरण में आवश्यकता नहीं है। ऐसा आचार्य हेमचन्द्र का कथन है।
रूदितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप रूण्णं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २०९ से 'दित' शब्दांश के स्थान पर द्वित्व 'ण्ण' का आदेश; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रूण्णं रूप सिद्ध हो जाता है।
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