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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 169
रिऊ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४१ में की गई है। उऊ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३१ में की गई है। रययं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है।
एतद संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से अन्त्य हलन्त व्यन्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर एअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ गतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप गओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गओ रूप सिद्ध हो जाता है।
आगतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप आगओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रतयय की प्राप्ति होकर आगओ रूप सिद्ध हो जाता है।
सांप्रतम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संपयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संपयं रूप सिद्ध हो जाता है।
यतः संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप जओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' को 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; और १-३७ से विसर्ग को 'ओ' की प्राप्ति होकर जओ रूप सिद्ध हो जाता है।
ततः संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप तओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और १-३७ से विसर्ग को 'ओ' की प्राप्ति होकर तओ रूप सिद्ध हो जाता है।
कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
हतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप हयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से लुप्त 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हयं रूप सिद्ध हो जाता है।
हताशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप हयासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लुप्त 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर हयासो रूप सिद्ध हो जाता है।
श्रुतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
आकृति संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आकिई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ'को १-१७७ से'त'का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ-स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर आकिइ रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्वृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निव्वुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; २-८९ से 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निव्वुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
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