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________________ 62 : प्राकृत व्याकरण २-४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १-५६ से 'ण' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'अहिष्णू' रूप सिद्ध हो जाता है। 'सर्वज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सव्वण्णू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व'; २- ४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १-५६ से 'ण' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'सव्वण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कृतज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कयण्णू' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से 'त' के 'अ' का 'य'; २- ४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १-५६ से 'ण' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'कयण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है। 'आगमज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आगमण्णू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण' ; १-५६ से 'ण' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'आगमण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है। 'अभिज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अहिज्जो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'भ' का 'ह'; २-८३ से 'ज्ञ' में रहे हुए 'ञ्' का लोप; २-८९ से शेष 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'अहिज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'सर्वज्ञः ' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सव्वज्जा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व'; २-८३ से 'ज्ञ' में रहे हुए 'ञ्' का लोप; २-८९ से शेष 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में ‘सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'सव्वज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'प्राज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पण्णो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ७९ से 'र्' का लोप; १-८४ से 'पा' के 'आ' का 'अ'; २- ४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पण्णो' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-५६ ।। एच्छय्यादौ ।। १-५७ ।। शय्यादिषु आदेरस्य एत्वं भवति ।। सेज्जा। सुन्दरं । गेन्दुअं। एत्थ ।। शय्या । सौन्दर्य । कन्दुक । अत्र || आर्षे पुरे कम्मं । अर्थ::- शय्या आदि शब्दों में आदि 'अ' का 'ए' होता है। जैसे- शय्या= सेज्जा। सौन्दर्यम् = सुन्देरं । कन्दुकम् = गेन्दुआं अत्र=एत्थ।। आर्ष में आदि 'आ' का 'ए' भी देखा जाता है। जैसे- पुरा कर्म-पुरे कम्म || 'शय्या' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सेज्जा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५७ से 'श' के आदि 'अ' का 'ए'; १-२६० से‘श' का 'स'; २-२४ से 'य्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; और सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ आकारान्त स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' होकर 'सेज्जा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'सौन्दर्यम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सुन्दर' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १६० से 'औ' का 'उ'; १-५७ से 'द' के 'अ' का 'ए'; २-६३ से 'र्य' का 'र'; ३ - २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ‘म्' की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुन्दर' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कन्दुकम्' संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'गेन्दुअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८२ से आदि 'क' का 'ग'; १-५७ से प्राप्त 'ग' के 'अ' का 'ए'; १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; ३ - २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गेन्दुअ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'एत्थ' की सिद्धि १ -४० में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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