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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 61 'वन्द्रम्' संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप 'वुन्द्र' और 'वन्द' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - ५३ से आदि 'अ' का विकल्प से 'उ'; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वुन्द' और 'वन्द्र' रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'खण्डितः ' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'खुडिओ' और 'खण्डिआ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-५३ से आदि 'अ' का 'ण्' सहित विकल्प से 'उ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'खुडिओ' और 'खण्डिओ' रूप सिद्ध हो जाते है ।।१ - ५३ । गवये वः ।। १-५४ ॥ गवय शब्दे वकाराकारस्य उत्वं भवति ।। गउओ । गउआ । अर्थः- गवय शब्द में 'व' के 'अ' का 'उ' होता है। जैसे- गवयः - गउओ और गउआ || 'गवयः' संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'गउओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व्' और 'य्' का लोप; १ - ५४ से लुप्त 'व' के 'अ' का 'उ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'गडओ' रूप सिद्ध हो जाता है। गवया संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'गउआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व्' और 'य्' का लोप; १-५४ से लुप्त 'व' के 'अ' का 'उ'; और सिद्ध-हेम-व्याकरण के २-४ -१८ से 'आत्' से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' होकर 'गउआ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-५४ ॥ प्रथमे प-थोर्वा ॥। १-५५।। प्रथम शब्दे पकार थकारयोरकारस्य युगपत् क्रमेण च उकारो वा भवति ।। पुदुमं पुढमं पद्मं पढमं । । अर्थः- प्रथम शब्द में 'प' के और 'थ' के 'अ' का 'उ' विकल्प से एक साथ भी होता है और क्रम से भी होता है। जैसे- प्रथमम् = (एक साथ का उदहारण) पुढमं । (क्रम के उदाहरण) पुढमं और पदुम । (विकल्प का उदाहरण) पढमं । 'प्रथमम' संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप चार होते हैं। पुढुमं, पुढमं, पढुमं और पढमं । इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; १ - २१५ से 'थ' का 'ढ'; १ - ५५ से 'प' और प्राप्त 'ढ' के 'अ' का 'उ' विकल्प से; युगपद् रूप से और क्रम से; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर पुदुमं, पुढमं, पढुमं और पढमं रूप सिद्ध हो जाते हैं । । १-५५ ।। ज्ञो णत्वेभिज्ञादौ ।। १-५६ ।। अभिज्ञ एवं प्रकारेषु ज्ञस्य णत्वे कृते ज्ञस्यैव अत उत्वं भवति । अहिष्णू । सव्वण्णू। कयण्णू। आगमण्णू।। णत्व इति किम्। अहिज्जो । सव्वज्जो । अभिज्ञादावितिकिम् । प्राज्ञः । पण्णो । येषां ज्ञस्य णत्वे उत्वं दृश्यतेते अभिज्ञादयः ।। अर्थः- अभिज्ञ आदि इस प्रकार के शब्दों में 'ज्ञ' का 'ण' करने पर 'ज्ञ' में रहे हुए 'अ' का 'उ' होता है। जैसे-अभिज्ञः=अहिण्णू। सर्वज्ञ = सव्वण्णू । कृतज्ञः कयण्णू । आगमज्ञः- आगमण्णू । 'णत्व' ऐसा ही क्यों कहा गया है ? क्योंकि यदि 'ज्ञ' का 'ण' नहीं करेंगे तो वहां पर 'ज्ञ' में रहे हुए 'अ' का 'उ' नहीं होगा । जैसे- अभिज्ञः = अहिज्जो । सर्वज्ञः सव्वज्जो।। अभिज्ञ आदि में ऐसा क्यों कहा गया है ? क्योंकि जिन शब्दों में 'ज्ञ' का 'ण' करने पर भी 'ज्ञ' में रहे हुए 'अ' का 'उ' नहीं किया गया है, उन्हें 'अभिज्ञ- आदि शब्दों की श्रेणी में मत गिनना । जैसे- प्राज्ञः पण्णो ।। अतएव जिन शब्दों में 'ज्ञ' का 'ण' करके 'ज्ञ' के 'अ' का 'उ' देखा जाता है उन्हें ही 'अभिज्ञ' आदि की श्रेणी वाला जानना । 'अभिज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अहिण्णू' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'भ' का 'ह'; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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