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________________ घणो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७२ में की गई है। सर्षप खलः रूप विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सरिवस - खलो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- १०५ से 'र्ष' शब्दांश के पूर्व में अर्थात् रेफ रूप 'र्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' का 'स्' ; १ - २३१ से 'प' का 'व्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरिसव-खलो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 155 प्रलय संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पलय होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप होकर पलय रूप सिद्ध हो जाता है। घणो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७२ में की गई है। अस्थिरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अथिरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अथि रूप सिद्ध हो जाता है। जिनधर्मः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जिण-धम्मो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७९ से 'र्' का लोप २-८९ से 'म्' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जिण धम्मो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रणष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पणओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २- ३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से 'ठ' की द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० प्राप्त पूर्व ' ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणओ रूप सिद्ध हो जाता है। भयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भओ रूप सिद्ध हो जाता है। नभं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ३२ में की गई है ।। १ - १८७।। पृथकि धो वा । । १ - १८८।। पृथक् शब्दे थस्य वा भवति ।। पिधं पुधं । पिहं पुहं ॥ अर्थः-पृथक् शब्द में रहे हुए 'थ' का विकल्प रूप से 'ध' भी होता है। अतः पृथक् शब्द के प्राकृत में वैकल्पिक पक्ष होने से चार रूप इस प्रकार होते हैं: - पृथक् = पिधं; पुधं; पिहं और पुहं || पृथक् संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप पिधं, पुधं पिहं और पुहं होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३७ से 'ऋ' के स्थान पर विकल्प रूप से और क्रम से 'इ' अथवा 'उ' की प्राप्ति; १ - १८८ से 'थ' के स्थान पर विकल्प रूप से प्रथम दो रूपों में ‘ध' की प्राप्ति; तथा १ - १८७ से तृतीय और चतुर्थ रूपों में विकल्प से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' का लोप; और १ - २४ की वृत्ति से अन्त्य स्वर 'अ' को अनुस्वार' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप पिंध, पुधं, पिह और पुहं सिद्ध हो जाते हैं ।। १- १८८ ।। Jain Education International श्रृङ्खले खः कः ।। १ - १८९ ।। श्रृङ्खले खस्य को भवति।। सङकलं ।। अर्थः-शृङ्खल शब्द में स्थित 'ख' व्यञ्जन का 'क' होता है। जैसे- शृङखलम्ः = सङकलं ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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