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________________ 156 : प्राकृत व्याकरण शृङ्खलम् संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप सङ्कलं अथवा संकलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श' का 'स'; १-३० और १ - २५ से 'ङ्' व्यञ्जन का विकल्प से अनुस्वार अथवा यथा रूप की प्राप्ति; १ - १८९ से 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सङ्कलं अथवा संकलं रूप सिद्ध हो जाता ।। १-१८९।। पुन्नाग - भागिन्योर्गो मः ।। १ - १९० ।। अनयोर्गस्य मो भवति।। पुन्नामाइँ वसन्ते । भामिणी ॥ अर्थः-पुन्नाग और भागिनी शब्दों में स्थित 'ग' का 'म' होता है। जैस - पुन्नागानि = पुन्नामाइं । । भागिनी = भामिणी ।। पुन्नागानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुन्नामाई होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १९० से 'ग' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; ३ - २६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'हूँ' प्रत्यय की प्राप्ति और अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' की दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति भी इसी सूत्र (३ - २६ ) से होकर पुन्नामाइँ रूप सिद्ध हो जाता है। वसन्ते संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप वसन्ते होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ङि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वसन्ते रूप सिद्ध हो जाता है। भागिनी संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भामिणी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १९० से 'ग' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' का 'ण' और संस्कृत व्याकरण के विधानानुसार दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा तथा १ - ११ से शेष अन्त्य 'स्' का लोप होकर भामिणी रूप सिद्ध हो जाता है ।। १ - १९० ।। छागे लः ।। १- १९१।। छागे गस्य लो भवति ।। छालो छाली ।। अर्थः :- छाग शब्द में स्थित 'ग' का 'ल' होता है। जैसे :- छाग:- छालो ।। छागी = छाली ॥ छागः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छाला होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १९१ से 'ग' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छालो रूप सिद्ध हो जाता है। छागीः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छाली होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १९१ से 'ग' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति होकर छाली रूप सिद्ध हो जाता है ।। १ - १९१।। ऊत्वे दुर्भग- सुभगे वः ।। १-१९२।। अनयोरूत्वे गस्य वो भवति ।। दूहवो । सूहवो ॥ ऊत्व इति किम् । दुहओ ।। सुहओ ॥ अर्थः- दुर्भग और सुभग शब्दों में स्थित 'ग' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होती है। जैसे- दुर्भगः - दूहवो। सुभगः सूहवो || किन्तु इसमें शर्त यह है कि 'ग' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होने की हालत में 'दुर्भग' और 'सुभग' शब्दों में स्थित ह 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति भी होती है। यदि हस्व 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ' नहीं किया जायगा तो फिर 'ग' को 'व' की प्राप्ति नहीं होकर 'ग्' का लोप हो जायगा । इसीलिये सूत्र में और वृत्ति में 'ऊत्व' की शर्त का विधान किया गया है। अन्यथा 'ग्' का लोप होने पर 'दुर्भगः' का 'दुहओ' होता है और 'सुभगः' का 'सुहओ' होता है ।। दूहवो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११५ में की गई है। सूहवो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११३ में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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