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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 5 से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; १-१८७ से आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोनों रूप 'गोरि हरं' और 'गोरी हरं' सिद्ध हो जाते हैं।
'वधु-मुखम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वहु-मुह' और 'वहू-मुह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' और 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-४ से प्राप्त हु' में स्थित हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'वहु-मुहं' और 'वहू-मुह सिद्ध हो जाते हैं १-४॥
पदयोः संधिर्वा ॥१-५।। संस्कृतोक्तः संधिः सर्वः प्राकृते पदयोर्व्यवस्थित-विभाषया भवति।। वासेसी वास-इसी। विसमायवो विसम-आयवो। दहि-ईसरो दहीसरो। साऊअयं साउ-उअयं।। पदयो रिति किम्। पाओ। पई। वच्छाओ। मुद्धाइ। मुद्धाए। महइ। महए। बहुलाधिकारात् क्वचिद् एक-पदेपि। काहिइ काही। बिइओ बीओ।
अथ :- संस्कृत-भाषा में जिस प्रकार से दो पदों की संधि परस्पर होती है; वही सम्पूर्ण संधि प्राकृत-भाषा में भी दो पदों में व्यवस्थित रीति से किन्तु वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे :- व्यास-ऋषिः वासेसी अथवा वास-इसी। विषम+ आतपः-विषमातपः-विसमायवो अथवा विसम-आयवो। दधि + ईश्वर-दधीश्वरः= दहि-ईसरा अथवा दहीसरो। स्वादु-उदकम्-स्वादूदकम् साऊअयं अथवा साउ-उअय।।
प्रश्नः- 'संधि दो पदों की होती है ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- क्योंकि एक ही पद में संधि-योग्य स्थिति भे रहे हुए स्वरों की परस्पर में संधि नहीं हुआ करती है; अतः दो पदों का विधान किया गया है। जैसेः पादः = पाओ। पतिः =पई। वृक्षात् वच्छाओ। मुग्धया मुद्धाई अथवा मुद्धाए। कांक्षति-महइ अथवा महए। इन (उदाहरणों में) प्राकृत-रूपों में संधि योग्य स्थिति में दो दो स्वर पास में आये हुए हैं; किन्तु ये संधि-योग्य स्वर एक ही पद में रहे हुए हैं; अतः इनकी परस्पर में संधि नहीं हुई है।
'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से किसी किसी एक ही पद में भी दो स्वरों की संधि होती हुई देखी जाती है। जैसेः करिष्यति-काहिइ अथवा काही। द्वितीयः बिइओ अथवा बीओ। इन उदाहरणों में एक ही पद में दो की परस्पर में व्यवस्थित रूप से किन्तु वैकल्पिक रूप से संधि हुई है। यह 'बहुलम्' सूत्र का ही प्रताप है।
'व्यास-ऋषिः' - संस्कृत रूप 'वासेसी' अथवा 'वास-इसी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या-२-७८ से 'य' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ए' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'इ' की प्राप्ति और १-५ से 'वास' में स्थित 'स' में रहे हुए 'अ' के साथ 'इसी' के 'इ' की वैकल्पिक रूप से संधि होकर दोनों रूप क्रम से 'वास इसी' और 'वासेसी' सिद्ध हो जाते हैं।
"विषम + आतपः ='विषमापतः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'विसमायवो' अथवा 'विसम-आयवो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हए 'अ'के स्थान पर 'य' की प्राप्ति: १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति: १-५ से 'विसम' में स्थित 'म' में रहे हुए 'अ' के साथ 'आयव' के 'आ' की वैकल्पिक रूप से संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'विसमायवो' और 'विसम-आयवो' सिद्ध हो जाते हैं।
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