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4: प्राकृत व्याकरण
'वारि-मतिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वारीमइ, और वारि-मई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४ से 'रि' में स्थित 'इ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'तू' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ह्रस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप वारी - मई और वारि मइ सिद्ध हो जाते हैं।
भुज- यन्त्रम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप भुआ - यन्तं और भुअ-यन्तं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ज' का लोप; १-४ से शेष 'अ' को वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'त्र' में स्थित 'र्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप भुआ - यन्तं और भुअ-यन्तं सिद्ध हो जाते हैं।
'पतिगृहम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पई - हरं' और 'पइ-हर' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'त' का लोप; १-४ से शेष 'इ' को वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति; २ - १४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; १ - १८७ आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप पई-हरं और पइ - हर सिद्ध हो जाते हैं।
'वेणु-वनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेलू-वणं' और 'वेलु-वेणं' हाते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २०३ से 'ण' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-४ से 'उ' को वैकल्पिक रूप से 'ऊ' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'वेलू-वणं' और 'वेलु-वणं' सिद्ध हो जाते हैं।
'नितम्ब-शिला- स्खलित - वीचि - मालस्य' संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निअम्ब-सिल, खलिअ-वीइ-मालस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या - १ - १७७ से दोनों 'त्' वर्णों का लोप; १ - २६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-४ से 'ला' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २- ७७ से हलन्त व्यञ्जन प्रथम 'स्' का लोप १-१७७ से 'च' का लोप; और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'ङस्' के स्थानीय प्रत्यय 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'निअम्ब - सिल- खलिअ -वीइ - मालस्स' सिद्ध हो जाता है।
'यमुनातटम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जउँण - यड' और 'जउँणा - यड' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-१७८ से प्रथम 'म्' का लोप होकर शेष स्वर 'उ' पर अनुनासिक की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-४ से प्राप्त 'णा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १ - १९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'जउँण - यड' और 'जउँणा - यड' सिद्ध हो जाते हैं।
'नदी - स्त्रोतम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नइ - सोत्तं' और 'नई-सोत्तं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-४ से शेष दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हस्व 'इ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-९८ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'नइ - सोत्तं' और 'नई - सोत्तं' सिद्ध हो जाते हैं।
'गौरीगृहम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गोरि-हरं' और 'गौरी - हरं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१५९ से 'ओ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ह्रस्व 'इ' की प्राप्ति; २ - १४४
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