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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 3 अर्थ:- जो शब्द ऋषि-भाषा से संबंधित होता है; वह शब्द 'आर्ष' कहलाता है। ऐसे आर्ष शब्द प्राकृत भाषा में बहुतायत रूप से होते हैं। उन सभी का दिग्दर्शन हम यथास्थान पर आगे ग्रंथ में बतलावेंगें। आर्ष-शब्दों में सूत्रों द्वारा साधनिका का विधान वैकल्पिक रूप से होता है। तदनुसार कभी-कभी तो आर्ष-शब्दों की साधनिका सूत्रों द्वारा हो सकती है और कभी नहीं भी हुआ करती है। अतः इस सम्बन्ध में वैकल्पिक विधान जानना।।१-३।। दीर्घ-हस्वौ मिथो वृत्तौ ॥१-४॥ वृत्तौ समासे स्वराणां दीर्घ हस्वौ बहुलं भवतः। मिथः परस्परम्॥ तत्र हस्वस्य दीर्घः।। अन्तर्वेदिः। अन्तावेई।। सप्तविंशतिः। सत्तावीसा।। क्वचिन्न भवति। जुवई-अणो। क्वचिद् विकल्पः। वारी-मई वारि-मई। भुज-यन्त्रम्। भुआ-यन्तं भुअ-यन्तं।। पतिगृहम्। पई-हरं पइ-हरं।। वेलू-वणं वेलु-वणं।। दीर्घस्य हस्वः। निअम्ब-सिल-खलिअ-वीइ-मालस्स।। क्वचिद् विकल्पः। जउँण-यडं जउंणा-यड। नइ-सोत्तं नई-सोत्तं। गोरि-हरं गोरी-हरं। वहु-मुहं वहू-मुहं।। अर्थः- समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व अक्सर हो जाया करते हैं। हस्व स्वर के दीर्घ स्वर में परिणत होने के उदाहरण इस प्रकार हैं :___ अन्तर्वेदिः अन्तावेई। सप्तविंशतिः सत्तावीसा।। किसी किसी शब्द में हस्व स्वर से दीर्घ-स्वर में परिणति नहीं भी होती है। जैसे-युवति-जनः जुवई-अणो। किसी किसी शब्द में हस्व स्वर से दीर्घ-स्वर में परिणति वैकल्पिक रूप से भी होती है। जैसे-वारि-मतिः-वारी मई। वारिमई भुज-यन्त्रम् भुआ-यन्तं अथवा भुअ-यन्त।। पति-गृहम्= पई-हरं अथवा पह-ह।। वेण वनम-वेल-वणं अथवा वेल-वणं। दीर्घ स्वर से हस्व स्वर में परिणत होने उदाहरण इस प्रकार है:- नितम्ब-शिला-स्खलित-वीचि-मालस्य-निअम्ब-सिल- खलिअ-वीइ-मालस्स। इस उदाहरण में 'शिला' के स्थान पर 'सिल' की प्राप्ति हुई है। किसी किसी शब्द में दीर्घ स्वर से हस्व स्वर में परिणति वैकल्पिक रूप से भी होती है। उदाहरण इस प्रकार है: यमुना-तटम्=जउँण-यडं अथवा जउँणा-यड।। नदी-स्रोतम्-नई-सोत्तं अथवा नई-सोत्तं।। गौरी गृहम् -गोरि-हरं अथवा गोरी-हरं। वधु-मुखम् वहु-मुहं अथवा वहू-मुहं।। इन उपरोक्त सभी उदाहरणों में दीर्घ स्वरों की और हस्व स्वरों की परस्पर में व्यत्यय स्थिति समझ लेनी चाहिये। 'अन्तर्वेदिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तावेई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४ से 'त' में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर आ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'अन्तावेई रूप सिद्ध हो जाता है। 'सप्तविंशतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सत्तावीसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'प्' का लोप; १-४ से 'त' में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'ता' के पूर्व में 'प' का लोप होने से द्वित्व 'त्ता' की प्राप्ति; १-२८ से 'वि' पर स्थित अनुस्वार का लोप; १-९२ से शेष 'वि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर 'ति' का लोप करते हुए दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य 'स' में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सत्तावीसा' रूप सिद्ध हो जाता है। युवति-जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जुवइ-अणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का और (द्वितीय) 'ज' का लोप; १-२२८ में 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुवई-अणो रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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