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________________ 2 : प्राकृत व्याकरण प्राकृत शब्द 'देशज-शब्द' नहीं है; यह बतलाने के लिए उपरोक्त सूत्र की रचना की गई है। प्राकृत-भाषा में संस्कृत भाषा के जैसे ही जिन-जिन समानान्तर शब्दों की उपलब्धि पाई जाती है; उन शब्दों की साधना संस्कृत-व्याकरण के अनुसार ही जानना। जो कि सात अध्यायों में पहले ही संगुफित कर दिये गये हैं। ___ संस्कृत रूपों से भिन्न रूपों में पाये जाने वाले शब्दों की सिद्धि-अर्थ इस व्याकरण की रचना की जा रही है। प्राकृत भाषा में भी प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास और संज्ञा इत्यादि सभी आवश्यकीय वैयाकरणीय व्यवस्थाएँ भी संस्कृत-व्याकरण के समान ही जानना। इनका सामान्य परिचय इस प्रकार है:- नाम, धातु, अव्यय, उपसर्ग आदि "प्रकृति" के अन्तर्गत समझे जाते हैं। संज्ञाओं में जोड़े जाने वाले "सि" आदि एवं धातुओं में जोड़े जाने वाले 'ति' आदि प्रत्यय कहलाते हैं। पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग ये तीन लिंग होते हैं। कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध, अधिकरण और संबोधन कारक होते हैं। - समास छह प्रकार के होते हैं-अव्ययीभाव, तत्पुरुष, द्वंद्व, कर्मधारय, द्विगु और बहुब्रीहि। यह अनुवृत्ति हेमचन्द्राचार्य रचित सिद्ध हेम व्याकरण के अनुसार जानना। स्वर और व्यञ्जनों की परंपराएँ पूर्व काल से चली आ रही है, इनमें से 'ऋ, ऋ, लु, ल, ऐ, औ, ङ,ब,श, ष, विसर्जनीय-विसर्ग और लुप्त को छोड़ करके शेष वर्ण-व्यवस्था लौकिक वर्ण-व्यवस्थानुसार समझ लेना चाहिये। 'ङ' और 'ब' ये अपने-अपने वर्ग के अक्षरों के साथ संयुक्त रूप से याने हलन्त रूप से पाये जाते हैं। 'ऐ' और 'औ' भी कहीं-कहीं पर देखे जाते हैं। जैसे-कैतवम् कैअवं। सौन्दर्यम् सौंअरिअं और कौरवाः कौरवा। इन उदाहरणों में 'ऐ' और 'औ' की उपलब्धि है। प्राकृत-भाषा में स्वर रहित व्यञ्जन नहीं होता है। द्विवचन और चतुर्थी का बहुवचन भी नहीं होता है। द्विवचन की अभिव्यक्ति बहुवचन के रूप में होती है, एवं चतुर्थी-बहुवचन का उल्लेख षष्ठी बहवचन के प्रत्यय संयोजित करके किया जाता है। ___ 'कैतवम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कैअवं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन से अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कैअवं' रूप सिद्ध हो जाता हैं। 'सौन्दर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सौअरिअं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १-१७७ से 'द' का लोप और २-७८ से 'य' का लोप २-१०७ से शेष हलन्त 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सौअरिअं' रूप सिद्ध हो जाता है। कौरवाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कौरवा' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहवचन में अकारान्त पल्लिग में प्राप्त 'जस' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त ए के पूर्व में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर कौरवा' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१।। बहुलम् ॥१-२॥ बहुलम् इत्यधिकृतं वेदितव्यम् आशास्त्रपरिसमाप्तेः।। ततश्च। क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा क्वचिद् अन्यदेव भवति। तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यामः। अर्थः- प्राकृत-भाषा में अनेक ऐसे शब्द होते हैं; जिनके एकाधिक रूप पाये जाते हैं; इनका विधान इस सूत्र से किया गया है। तदनुसार इस व्याकरण के चारों पाद पूर्ण होवें, वहां तक इस सूत्र का अधिकार क्षेत्र जानना इस सूत्र की कहीं पर प्रवृत्ति होगी; कहीं पर अप्रवृत्ति होगी; कहीं पर वैकल्पिक प्रवृत्ति होगी और कहीं पर कुछ नवीनता होगी। यह सब हम यथास्थान पर बतलावेंगे। ॥१-२।। आर्षम् ॥१-३॥ ऋषीणाम् इदम् आर्षम्। आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति। तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः। आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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