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॥ ॐ श्री अर्हत्-सिद्धेभ्यो नमः।।
आचार्य हेमचन्द्र रचितम् (प्रियोदय हिन्दी-व्याख्यया समलंकृतम्)
प्राकृत-व्याकरणम्
प्रथम पाद त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम् ।।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेक। ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।।१।।
अथ प्राकृतम् ॥१-१॥ अथ शब्द आनन्तर्यार्थोऽधिकारार्थश्च।। प्रकृतिः संस्कृतम्। तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्। संस्कृतानन्तरं प्राकृतमधिक्रियते।। संस्कृतानन्तरंच प्राकृतस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानभेदसंस्कृतयोनेरेव तस्य लक्षणं न देश्यस्य इति ज्ञापनार्थम्। संस्कृतसमं तु संस्कृत लक्षणेनैव गतार्थम्। प्राकृते च प्रकृति-प्रत्यय-लिंग-कारक-समाससंज्ञादयः संस्कृत वद् वेदितव्याः। लोकाइति च वर्तते। तेन ऋ-ऋ-ल-ल ऐ-औ-ङ-ब-श-ष-विसर्जनीयप्लुत-वा वर्णसमाम्नायो लोकाद् अवगन्तव्यः। ङ-बी-स्व-वर्य संयुक्तौ भवत एव। ऐदौतौ च केषाचित्। कैतवम्। कैअवं। सौन्दर्यम्। सौंअरि। कौरवाः।। कौरवा।। तथा अस्वरं व्यञ्जनं द्विवचनं चतुर्थी-बहुवचनं च न भवति।।। __ अर्थः- "अथ" शब्द के दो अर्थ होते हैं:- (१) पश्चात् वाचक और (२) "अधिकार" या "आरंभ" अथवा "मंगलाचरण" वाचक। यहाँ पर "प्रकृति" शब्द का तात्पर्य "संस्कृत" है; ऐसा मूल ग्रंथकार का मन्तव्य है। तदनुसार संस्कृत से आया हुआ अथवा संस्कृत से उत्पन्न होने वाला शब्द प्राकृत-शब्द होता है; ऐसा आचार्य हेमचन्द्र का दृष्टिकोण है परन्तु भाषा-विज्ञान की दृष्टि से ऐसा अर्थ ठीक नहीं है। किसी भी कोष में अथवा व्युत्पत्ति-शास्त्र में "प्रकृति" शब्द का अर्थ "संस्कृत" नहीं लिखा गया है। यहाँ "प्रकृति" शब्द के मुख्य अर्थ "स्वभाव" अथवा "जन-साधारण" लेने में किसी तरह का विरोध नहीं है। "प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध इति प्राकृतम्" अथवा प्रकृतीनां-साधारण जनानामिदं प्राकृतम्" यही व्युत्पत्ति वास्तविक और प्रमाणयुक्त मानी जा सकती है। तदनुसार यहाँ पर सुविधानुसार प्राकृत-शब्दों की साधनिका संस्कृत शब्दों के समानान्तर रूप का आधार लेकर की जायगी। क्योंकि बिना समानान्तर रूप के साधनिका की रचना नहीं की जा सकती है। जिस भाषा-प्रवाह का परिवर्तित रूप 'प्राकृत' में उपलब्ध है; वह भाषा-प्रवाह लुप्त हो गया है; अतः समानान्तर आधार के लिये हमें संस्कृत भाषा की ओर अभिमुख होना पड़ रहा है; ऐसे तात्पर्य की अभिव्यक्ति "प्रकृतिः संस्कृतम्" शब्दों द्वारा जानना। प्रथम संस्कृत-व्याकरण का निर्माण सात अध्यायों में करके इस आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण की रचना की जा रही है। संस्कृत व्याकरण के पश्चात् प्राकृत-व्याकरण का विधान करने का तात्पर्य यह है कि प्राकृत-भाषा के शब्द कुछ तो संस्कृत के समानान्तर ही होते हैं और कुछ की साधनिका करनी पड़ती है। अतः
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