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________________ 6 : प्राकृत व्याकरण 'दधि-ईश्वरः दधीश्वरः संस्कृत रूप है; इसके प्राकृत रूप 'दहि-ईसरो' और 'दहीसरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति, २-७९ से 'व' का लोप, १-२६० से शेष 'श' का 'स', १-५ से 'दहि' में स्थित 'इ' ने साथ 'ईसर' के 'ई' की वैकल्पिक रूप से सन्धि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'दहि-ईसरो' और 'दहीसरो' सिद्ध हो जाते हैं। स्वादु+उदकम् स्वादूदकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप साऊअयं और साउ-ऊअयं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' का लोप; १-१७७ से दोनों 'द्' का तथा 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-५ से 'साउ' में स्थित 'उ' के साथ 'उ अय' के 'ऊ' की वैकल्पिक रूप से सधि होने से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप साऊअयं और साउ-उअयं सिद्ध हो जाते हैं। 'पाद' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पाओ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'पतिः' संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य 'इ'को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर 'पई रूप सिद्ध हो जाता है। "वृक्षात्' संस्कृत पञ्चम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के प्राप्ति: २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्तिः २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छछ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; ३-८ संस्कृत पंचमी प्रत्यय 'ङ्सि' के स्थानीय रूप 'त' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१२ से प्राकृत में प्राप्त प्रत्यय 'ओ' के पूर्व में 'वच्छ' के अन्त्य 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'वच्छाओ' रूप सिद्ध होता है। ___ 'मुग्धया' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुद्धाए' और 'मुद्धाइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ३-२९ से संस्कृत तृतीया-विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'या' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ए' और 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-२९ से ही प्राप्त प्रत्यय 'ए' और 'इ' के पूर्व में अन्त्य स्वर 'आ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'मुद्धाए' एवं 'मुद्धाइ' सिद्ध हो जाते हैं। कांक्षति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'महइ' और 'महए' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-१९२ से 'कांक्ष' धातु के स्थान पर 'मह' का आदेश; ४-२३९ से प्राप्त 'मह' में हलन्त 'ह' को 'अ' की प्राप्तिः ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' और और 'ए' की प्राप्ति होकर दोनों रूप क्रम से 'महइ' और 'महए' सिद्ध हो जाते हैं। __ 'करिष्यतिः' क्रिया पद का संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'काहिइ' और 'काही' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-२१४ से मूल धातु 'कृ' के स्थान पर 'का' का आदेश, ३-१६६ से संस्कृत भविष्यत्-कालीन संस्कृत प्रत्ययांश 'ष्य' के स्थान पर 'हि' की प्राप्तिः एवं ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम परुष के एकवचन में 'इ'क में स्थित 'इ' के साथ आगे रही हुई 'इ' की संधि वैकल्पिक रूप से होकर दोनों रूप क्रम से 'काहिइ' और 'काही' सिद्ध हो जाते हैं। "द्वितीयः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बिइओ' और 'बीओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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