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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 7 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का और 'य' का लोप; १-४ से द्वितीय दीर्घ 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति; १-५ से प्रथम 'इ' के साथ द्वितीय 'इ' की वैकल्पिक रूप से संधि होकर दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'बिइओ' और 'बीओ' सिद्ध हो जाते हैं। १-५।। न युवर्णस्यास्वे ॥१-६।। इवर्णस्य उवर्णस्य च अस्वे वर्णे परे संधि न भवति। न वेरि-वग्गे वि अवयासो। वन्दामि अज्ज-वइरं।। दणु-इन्द रूहिर-लित्तो सहइ उइन्दो नह-प्पहावलि-अरूणो। संझा-वहु-अवऊढो णव-वारिहरोव्व विज्जुला-पडिभिन्नो।। युवर्णस्येति किम्। गूढोअर-तामरसाणुसारिणी भमर-पन्तिव्व। अस्व इति किम्। पुहवीसो।। अर्थः- प्राकृत में 'इवर्ण' अथवा 'उवर्ण' के आगे विजातीय स्वर रहे हुए हों तो उनकी परस्पर में संधि नहीं हुआ करती है। जैसे:- न वैरिवर्गेऽपि अवकाशः न वेरि-वग्गे वि अवयासो। इस उदाहरण में 'वि' में स्थित 'इ' के आगे 'अ' रहा हुआ है; किन्तु संस्कृत के समान होने योग्य संधि का भी यहां निषेध कर दिया गया है; अर्थात् संधि का विधान नहीं किया गया है। यह 'इ' और 'अ' विषयक संधि-निषेध का उदाहरण हुआ। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- वन्दामि आर्य-वैरं-वन्दामि अज्ज-वरं। इस उदाहरण में 'वन्दामि' में स्थित अन्त्य 'इ' के आगे 'अ' आया हुआ है; परन्तु इनमें सधि नहीं की गई है। इस प्रकार प्राकृत में 'इ' वर्ण के आगे विजातीय-स्वर की प्राप्ति होने पर संधि नहीं हुआ करती है। यह तात्पर्य है। उपरोक्त गाथा की संस्कृत छाया निम्न है : दनुजेन्द्ररूधिरलिप्तः राजते उपेन्द्रो नखप्रभावल्यरूणः। सन्ध्या-वधूपगूढो नव वारिधर इव विद्युत्प्रतिभिन्नः।। इस गाथा में सधि-विषयक स्थिति को समझने के लिये निम्न शब्दों पर ध्यान दिया जाना चाहिये:-'दणु+इन्द; 'उ+इन्दो; 'प्पहावलि+अरूणो; 'वहु+अवऊढो; इन शब्दो में क्रम से 'उ' के पश्चात् 'इ; 'इ' के पश्चात् 'अ' एवं 'उ' के पश्चात् 'अ' आये हुए हैं; ये स्वर विजातीय स्वर हैं; अतः प्राकृत में इस सूत्र (१-६) में विधान किया गया है कि 'इ' वर्ण और 'उ' वर्ण के आगे विजातीय स्वर आने पर परस्पर में संधि नहीं होती है जबकि संस्कृत भाषा में संधि हो जाती है। जैसा कि इन्हीं शब्दों के संबंध में उपरोक्त श्लोक में देखा जा सकता है। प्रश्नः- 'इवर्ण' और 'उवर्ण' का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? अन्य स्वरों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया है? उत्तरः- अन्य स्वर 'अ' अथवा 'आ' के आगे विजातीय स्वर आ जाय तो इनकी संधि हो जाया करती है; अतः 'अ' 'आ' की प्रथक् संधि-व्यवस्था होने से केवल 'इ' वर्ण और 'उ' वर्ण का ही मूल-सूत्र में उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है :- (संस्कृत-छाया) - गूढोदर- तामरसानुसारिणी-भ्रमरपङ्क्तिरिव =गूढोअर-तामरसाणुसारिणी भमर-पन्ति व्व; इस वाक्यांश में 'गूढ+उअर' और 'रस+अणुसारिणी' शब्द संधि-योग्य दृष्टि से ध्यान देने योग्य हैं। इनमें 'अ+उ' की संधि करके 'ओ' लिखा गया है। इसी प्रकार से 'अ+अ' की संधि करके 'आ' लिखा गया है। यों सिद्ध होता है कि 'अ' के पश्चात् विजातीय स्वर 'उ' के आ जाने पर भी संधि होकर 'ओ' की प्राप्ति हो गई। अतः यह प्रमाणित हो जाता है कि 'इ' अथवा 'उ' के आगे रहे हुए विजातीय स्वर के साथ इनकी संधि नहीं होती है; जबकि 'अ' अथवा 'आ' के आगे विजातीय स्वर रहा हुआ हो तो इनकी संधि हो जाया करती है। प्रश्न:- “विजातीय' अथवा 'अस्व' स्वर का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः- 'इ' वर्ण अथवा 'उ' वर्ण के आगे विजातीय स्वर नहीं होकर यदि 'स्व-जातीय' स्वर रहे हुए हों तो इनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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