________________
172 : प्राकृत व्याकरण स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसे:-वितस्तिः विहत्थी; वसतिः-वसही; भरतः भरहो; कातरः काहलो; और मातुलिङगम्-माहुलिङग।। 'बहुलाधिकार' सूत्र के आधार से किसी किसी शब्द में 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-वसतिः वसई।। मातुलुङग शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होती है। अतः मातुलुङगम् रूप का प्राकृत रूप माउलुङगं होता है।
वितस्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विहत्थी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्'
को 'त्' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर विहत्थी रूप सिद्ध हो जाता है।
वसतिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वसही और वसई होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२ के अधिकार से तथा १-१७७ से 'त्' का लोप; तथा दोनों
१ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से वसही और वसई दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
भरतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भरहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भरहो रूप सिद्ध हो जाता है।
कातरः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप काहलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काहलो रूप सिद्ध हो जाता है।
मातुलिंगम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माहुलिंगं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माहुलिंग रूप सिद्ध हो जाता है।
मातुलुङगम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउलुङगं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउलुङगम रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२१४।।
मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथमे थस्य ढः।। १-२१५।। एषु थस्य ढो भवति। हापवादः।। मेढी। सिढिलो। सिढिलो। पढमो।।
अर्थः-सूत्र-संख्या १-१८७ में यह विधान किया गया है कि संस्कृत-शब्दों में स्थित 'थ' का प्राकृत रूपान्तर में 'ह' होता है। किन्तु यह सूत्र उक्त सूत्र का अपवाद रूप विधान है। तदनुसार मेथि; शिथिर; शिथिल और प्रथम शब्दों में स्थित 'थ' का 'ढ' होता है। जैसे:-मेथि:-मेढी; शिथिरः सिढिलो; शिथिल' सिढिलो और प्रथमः पढमो।। इस अपवाद रूप विधान के अनुसार उपरोक्त शब्दों में 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होकर 'ढ' की प्राप्ति हुई है। ___ मेथिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मेढी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१५ से प्रथम 'थ' के स्थान पर 'ढ'
की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर मेढि रूप सिद्ध हो जाता है।
शिथिरः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप सिढिलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से'थ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति: १-२५४ से 'र' का 'ल' ३
से 'र' का 'ल' ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिढिलो रूप सिद्ध हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org