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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 171
शातवाहनीः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सालाहणी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स; १-२११ से 'त' के स्थान पर 'ल' का आदेश; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-५ से लोप हुए 'व्' में से शेष रहे हुए 'आ' की पूर्व वर्ण 'ल' के साथ संधि होकर 'ला' की प्राप्ति और १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति होकर सालाहणी रूप सिद्ध हो जाता है।
भाषा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भासा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'ष' का 'स होकर भासा रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२११।।
पलिते वा।। २-२१२।। पलिते तस्य लो वा भवति।। पलिलं। पलि।। अर्थः-पलित शब्द में स्थित 'त' का विकल्प से 'ल' होता है। जैसे:-पलितम्-पलिलं अथवा पलि।
पलितम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पलिलं और पलिअं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१२ से प्रथम रूप में 'त' के स्थान पर विकल्प से 'ल' आदेश की प्राप्ति; और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पलिलं और पलिअं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-२१२।।
- पीते वो ले वा।। १-२१३।। पीते तस्य वो वा भवति स्वार्थलकारे परे।। पीवलं।। पीअलं।। ल इति किम्। पी।
अर्थः-'पीत' शब्द में यदि 'स्वार्थ-बोधक' अर्थात् 'वाला' अर्थ बतलाने वाला 'ल' प्रत्यय जुड़ा हुआ हो तो 'पीत' शब्द में रहे हुए 'त' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'व' वर्ण का आदेश हुआ करता है। जैसे:-पीतलम्=पीवलं अथवा पीअलं-पीले रंग वाला।।
प्रश्नः-मूल-सूत्र में 'ल' वर्ण का उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः-'ल' वर्ण संस्कृत-व्याकरण में 'स्वार्थ-बोधक अवस्था में शब्दों में जोड़ा जाता है। तदनुसार यदि 'पीत शब्द में स्वार्थ-बोधक 'ल' प्रत्यय जुड़ा हुआ हो; तभी 'पीत' में स्थित 'त' के स्थान पर 'व' का वैकल्पिक रूप से आदेश होता है; अन्यथा नहीं। इसी तात्पर्य को समझाने के लिये मूल-सूत्र में 'ल' वर्ण का उल्लेख किया गया है। स्वार्थ-बोधक 'ल' प्रत्यय के अभाव में पीत शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'व' वर्ण का आदेश नहीं होता है। जैसेः-पीतम्=पी।। __पीतलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पीवलं और पीअल होते हैं। इसमें से प्रथम सूत्र-संख्या १-२१३ से
वैकल्पिक रूप से 'त' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पीवलं और पीअलं रूप सिद्ध हो जाते है।
पीतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पीअं होता है। इसमें से सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्'का अनुस्वार होकर पीअरूप सिद्ध हो जाता है।
वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुलिंगे हः।। १-२१४॥ एषु तस्य हो भवति।। विहत्थी। वसही॥ बहुलाधिकारात् कचिन्न भवति। वसई। भरहो। काहलो। माहुलिङगं मातुलुङग शब्दस्य तु माउलुङगम्।।
अर्थः-वितस्ति शब्द में स्थित प्रथम 'त' के स्थान पर और वसति, भरत, कातर तथा मातुलिङग शब्दों में स्थित 'त' के
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