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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 357 'हु' प्राकृत साहित्य का रूढ़-रूपक एवं रूढ-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। कोई-कोई 'खलु' के स्थान पर 'हु' आदेश की प्राप्ति मानते हैं।
'अछिन्नश्रीः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अछिन्नसिरी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-१०४ से प्राप्त 'स्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' को यथास्थिति की प्राप्ति होकर एवं १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर 'अछिनसिरी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'खलु' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'खु होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९८ से खलु' के स्थान पर 'खु' आदेश की प्राप्ति होकर 'खु' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ "श्रियः' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिरीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-१०४ से प्राप्त स्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और ३-२९ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'यः' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिरीए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। णवरं (=वैकल्पिक रूप-णवर) की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८७ में की गई है।
'संगृहीता' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संगहिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; और १-१०१ से 'ही' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर 'संगहिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एतम्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'एअं रूप सिद्ध हो जाता है।
हसति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१३९ से वर्तमानकाल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसइ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'जलधर' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जलहरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जलहरो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'धूमपटलः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धूमवडलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व', १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धूमवडलो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'तरितुम् संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तरीउ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से मूल धातु 'तर्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३-१५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' को 'इ' की प्राप्ति, १-४ से प्राप्त हस्व 'इ' के स्थान पर दीर्घ 'ई' की प्राप्ति, १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और १-२३ से अन्त्य हलन्त् 'म्' का अनुस्वार होकर 'तरीउ रूप सिद्ध हो जाता है।
'ण' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८० में की गई है। "णवर' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८७ में की गई है।
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