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356 : प्राकृत व्याकरण
की प्राप्ति और ३-१७३ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की होकर 'साहस' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सद्भावम्' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सब्मावं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से लोप 'हुए' 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'भ्' को द्वित्व 'भ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त हुए पूर्व 'भ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सब्भावं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'निर्लज्ज'! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निल्लज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से '' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर (हे) निल्लज्ज रूप सिद्ध हो जाता है।
'समपसर' संस्कृत आज्ञार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'समोसर होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७२ से मध्यस्थ उपसर्ग 'अप' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; ४-२३९ से 'समोसर' में स्थित अन्त्य हलन्त 'र' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'समोसर' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-१९७।।
हु खु निश्चय-वितर्क-संभावन-विस्मये ।। २-१९८॥ हु खु इत्येतो निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यो। निश्चये। तं पि हु अच्छिन्नसिरी। तं खु सिरीएँ रहस्स।। वितर्कः ऊहः संशयो वा। ऊहे। न हु णवरं संगहिआ। एअंखु हसइ।। संशये। जलहरो खु धूमवडलो खु॥ संभावने। तरीउंण हु णवर इम। एअंखु हसइ। विस्मये। को खु एसो सहस्स-सिरो।। बहुलाधिकारादनुस्वारात् परो हुन प्रयोक्तव्यः॥ ___ अर्थः- 'हु' और 'खु' प्राकृत-साहित्य में प्रयुक्त किये जाने वाले अव्यय हैं। इनका प्रयोग करने पर प्रसंगानुसार 'निश्चय' अर्थ; 'तर्कात्मक' अर्थ; 'संशयात्मक' अर्थ; 'संभावना' अर्थ और 'विस्मय-आश्चर्य' अर्थ प्रकट होता है। 'निश्चय' अर्थक उदाहरण इस प्रकार हैं:- त्वमपि हु (=एवं) अछिन्न श्रीः=तं पि हु अछिन्नसिरी अर्थात् निश्चय ही तू परिपूर्ण शोभावाली है। त्वम् खु (-खलु) श्रियः रहस्यम्=तं खु सिरीएँ रहस्सं अर्थात् निश्चय ही तू संपत्ति का रहस्य (मूल कारण) है। वितर्क अर्थक, 'साध्य-साधन' से संबंधित 'कल्पना' अर्थक और 'संशय' अर्थक उदाहरण इस प्रकार हैं:न हु केवलं संगृहीता=न हु णवरं संगाहिआ अर्थात् उस द्वारा केवल संग्रह किया हुआ है कि नही है? एतं खु हसति एअंखु हसइ अर्थात् क्या इस पुरुष के प्रति वह हंसती! कि नहीं हंसती है? संशय का उदाहरणः- जलधरः खु धूम पटलः खु-जलहरो खु धूम वडलो खु अर्थात् यह बादल है अथवा यह धुंए का पटल है? संभावना का उदाहरणः तरितुं न हु केवलम् इमाम्=तरीउंण हु णवर इमं अर्थात् इस (नदी) को केवल तैरना (-तैरते हुए पार उतर जाना) संभव नहीं है। एतं
खु हसति एअंखु हसइ अर्थात् (यह) इसके प्रति हंसती है, ऐसा संभव है। 'विस्मय' का उदाहरणः- कः खलु एषः सहस्र शिराः= को खु एसो सहस्स-सिरो अर्थात् आश्चर्य है कि हजार सिर वाला यह कौन है ? प्राकृत-साहित्य में 'बहुल' की अर्थात् एकाधिक रूपों की उपलब्धि है; अतः अनुस्वार के पश्चात् 'हु' का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये। ऐसे स्थल पर 'खु का प्रयोग होता है। ___ 'त्वम्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९० से 'युष्मद्' स्थानीय रूप 'त्वम्' के स्थान पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय का योग होने पर 'त' आदेश की प्राप्ति होकर 'त' रूप सिद्ध हो जाता है।
"पि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है।
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