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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 355 चाहिये। जैसे:- दे! प्रसीद तावत् (हे) सुन्दरि ! = दे पसिअ ताव (हे) सुन्दरि अर्थात् मेरी और देखो; अब हे सुन्दरि ! प्रसन्न हो जाओ। दे (= हे सखि !) आ प्रसीद निवर्त्तस्व= दे ! आ पसिअ निअत्तसु अर्थात् हे सखि ! अब प्रसन्न हो जाओ (और निवृत्त होओ।)
'दे' प्राकृत - साहित्य का संमुखीकरणार्थक अव्यय है; तदनुसार रूढ अर्थक और रूढ - रूपक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
पसिअ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १०१ में की गई है।
ताव अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ११ में की गई है।
(सुन्दरि ! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'सुन्दरि ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-४२ से संबोधन के एकवचन में दीर्घ इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' को ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर (हे) सुंदरि ! रूप सिद्ध हो जाता है।
'आ' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'आ' ही होता है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
सि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०१ में की गई है।
'निवर्त्तस्व' संस्कृत आज्ञार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निअत्तसु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व' का लोप; २-७९ से 'र्' का लोप और ३- १७३ से संस्कृत आज्ञार्थक प्रत्यय 'स्व' के स्थान पर प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निअत्तसु' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९६।।
हुं दान-पृच्छा - निवारणे ।। २-१९७।।
हुं इति दानादिषु प्रयुज्यते । । दाने । हुँ गेण्ह अप्पणो च्चिअ ।। पृच्छायाम् । हुं साहसु सब्भावं । । निवारणे । हुं निल्लज्ज समोसर ||
अर्थः- 'वस्तु विशेष' को देने के समय में ध्यान आकर्षित करने के लिये अथवा सावधानी बरतने के लिये प्राकृत साहित्य में 'हुँ' अव्यय का प्रयोग किया जाता है; इसी प्रकार से किसी भी तरह की बात पूछने के समय में भी 'हुँ' अव्यय का प्रयोग किया जाता है एवं 'निषेध करने' के अर्थ में अथवा 'मनाई' करने के अर्थ में भी 'हुं' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:- हुं गृहाण आत्मनः = हुं गेण्ह अप्पणो च्चिअ अर्थात् साहसु सब्भावं । 'निवारण' अर्थ में '' अव्यय के प्रयोग का उदाहरण यों है: - हुं निर्लज्ज ! समपसर - हुं निल्लज्ज ! समोसर अर्थात् हुं ! निर्लज्ज ! निकल जा ।
'हु' प्राकृत भाषा का अव्यय होने से रूढ रूपक एवं रूढ अर्थक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'गृहाण' संस्कृत आज्ञार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गेण्ह' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४ - २०९ से 'ग्रह' धातु के स्थान पर 'गेण्ह्' (रूप का) आदेश; ४- २३९ से हलन्त् 'ह्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३ - १७५ से आज्ञार्थक कार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य 'सु' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'गेण्ह' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आत्मनः' संस्कृत बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अप्पणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' के स्थान पर द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; और ३-५० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अप्पणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
चिअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
'कथय' संस्कृत आज्ञार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'साहस' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२ से 'कथ्' धातु के स्थान पर प्राकृत में 'साह्' आदेश ४ - २३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ'
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