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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 219
प्रश्नः- 'निश्चल' शब्द में हस्व स्वर 'इ' के पश्चात् ही 'श्च' रहा हुआ है; तो फिर 'श्च' के स्थान पर प्राप्तव्य ‘छ' का निषेध क्यों किया गया है ?
उत्तरः- परम्परागत प्राकृत साहित्य में निश्चलः' संस्कृत शब्द का प्राकृत रूप 'निश्चलो' ही उपलब्ध है; अतः परम्परागत रूप के प्रतिकूल अन्य रूप कैसे लिखा जाय ? इसीलिये 'निश्चलः' का 'निच्छलो' नहीं होकर 'निश्चलो' ही होता है। तद्नुसार मूल-सूत्र में 'निश्चल' शब्द को पृथक् कर दिया गया है। अर्थात् यह नियम 'निश्चल' में लागू नहीं होता है। अतएव संस्कृत रूप 'निश्चलः' का प्राकृत रूप निश्चलो होता है।
आर्ष-प्राकृत में संस्कृत शब्द 'तथ्य' में रहे हुए 'थ्य' के स्थान पर 'च' होता है। जैसे:- तथ्यम्=तच्च।। "पथ्यम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'थ्य' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पच्छ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पथ्या' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'थ्य' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च्' की प्राप्ति होकर पच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मिथ्या संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मिच्छा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'थ्य' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व ' ' को 'च' की प्राप्ति होकर 'मिच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पश्चिमम' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छिम' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छको 'च' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पच्छिम रूप सिद्ध हो जाता है।
अच्छेरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५८ में की गई है।
'पश्चात् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'पच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
उच्छाहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११४ में की गई है।
'मत्सरः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मच्छला' और 'मच्छरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-२१ से 'त्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२ से प्रथम रूप की अपेक्षा से 'र' का 'र' ही; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप 'मच्छलो' एवं 'मच्छरो' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। __ 'संवत्सरः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'संवच्छला' और 'संवच्छरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-२१ से 'त्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२ से प्रथम रूप की अपेक्षा से 'र' का 'र' ही और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप 'संवच्छलो' और 'संवच्छरो' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
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