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218 : प्राकृत व्याकरण
'वृक्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रुक्खो ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१२७ से 'वृक्ष' के स्थान पर 'रूक्ख' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रुक्खो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'छूढो रूप की सिद्धि इसी सूत्र से ऊपर कर दी गई है। अन्तर इतना सा है कि ऊपर नपुंसकात्मक विशेषण है और यहाँ पर पुल्लिंगात्मक विशेषण है। अतः सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छूढो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९।।
क्षण उत्सवे ।। २-२० ।। क्षण शब्दे उत्सवाभिधायिनि संयुक्तस्य छो भवति ।। छणो ।। उत्सव इतिकिम् । खणो।
अर्थः- क्षण शब्द का अर्थ जब 'उत्सव' हो तो उस समय में क्षण में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' का 'छ' होता है। जैसे:- क्षणः=(उत्सव)-छणो॥ प्रश्नः- मूल-सूत्र में 'उत्सव' ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- क्षण शब्द के संस्कृत में दो अर्थ होते हैं। उत्सव और काल-वाचक सूक्ष्म समय विशेष। अतः जब 'क्षण' शब्द का अर्थ उत्सव हो तो उस समय में 'क्ष' का 'छ' होता है एवं जब 'क्षण' शब्द का अर्थ सूक्ष्म काल वाचक समय विशेष हो तो उस समय 'क्षण' में रहे हुए 'क्ष' का 'ख' होता है। जैसे:- 'क्षणः (समय विशेष)-खणो।। इस प्रकार की विशेषता बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में 'उत्सव' शब्द जोड़ा गया है। ___ 'क्षणः' (उत्सव) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२० से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
क्षणः (काल वाचक) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खणो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२० ।।
हस्वात् थ्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले ।। २-२१ ।। हस्वात् परेषां थ्य श्च त्स प्सां छो भवति निश्चले तु न भवति ।। थ्य । पच्छं। पच्छा । मिच्छा ।। श्च । पच्छिम। अच्छेरं । पच्छा ।। त्स । उच्छाहो । मच्छलो । मच्छरो । संवच्छलो । संवच्छरो । चिइच्छइ ।। प्स । लिच्छइ । जुगुच्छइ । अच्छरा। हस्वादिति किम् । ऊसारिओ । अनिश्चल इति किम् । निश्चलो ।। आर्षे तथ्ये चो पि। तच्च।।
अर्थः- यदि किसी शब्द में हस्व स्वर के बाद में 'थ्य'; 'श्च'; 'त्स'; अथवा प्स में से कोई एक आ जाय; तो इनके स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। किन्तु यह नियम 'निश्चल' शब्द में रहे हुए 'श्च' के लिये नहीं है। यह ध्यान में रहे ।। 'थ्य' के उदाहरण इस प्रकार है:- पथ्यम्=पच्छं ।। पथ्या पच्छा।। मिथ्या मिच्छा इत्यादि।। 'श्च' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- पश्चिमम्=पच्छिमं। आश्चर्यम्-अच्छेरं। पश्चात्-पच्छा।। 'त्स' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- उत्साहो-उच्छाहो। मत्सरः मच्छलो अथवा मच्छरो। संवत्सरः संवच्छलो अथवा संवच्छरो।। चिकित्सति-चिइच्छइ।। 'प्स' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- लिप्सत्ते-लिच्छइ।। जुगुप्सति-जुगुच्छइ।। अप्सरा-अच्छरा।। इत्यादि।।
प्रश्नः- 'हस्व स्वर' के पश्चात् ही रहे हुए हों तो 'थ्य', 'श्च' 'त्स' और 'प्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:- यदि 'थ्य, श्च, त्स और प्स' दीर्घ स्वर के पश्चात् रहे हुए हों तो इनके स्थान पर 'छ' की प्राप्ति नहीं होती है। अतः 'हृस्व स्वर' का उल्लेख करना पड़ा। जैसे:- उत्सारित-ऊसारिओ। इस उदाहरण में प्राकृत रूप में 'ऊ' दीर्घ स्वर है; अतः इसके परवर्ती 'त्स' का 'छ' नहीं हुआ है। यदि प्राकृत रूप में हस्व होता तो 'त्स' का 'छ' हो जाता।
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